परम पावन 14 वें दलाई लामा
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भारतीय राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय की यात्रा १५/दिसम्बर/२०१६

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बेंगलुरू, कर्नाटक, भारत - कई दिनों की वर्षा और मेघाछन्न बादलों के बाद आज सूरज चमक रहा था जब परम पावन दलाई लामा बेंगलुरू के दूसरे छोर पर, भारतीय राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, एक संस्था जो अवर स्नातकों तथा स्नातकों को विधि और नीति शिक्षा प्रदान करती है, गाड़ी  से गए  । ४०० छात्रों और शिक्षकों द्वारा भरे सभागार में अनुरक्षित किए जाने से पूर्व कुलपति डॉ आर वेंकट राव और संकाय के सदस्यों ने उनका स्वागत किया।

कुलपति ने कानून के प्रोफेसर, डॉ वी विजयकुमार को परम पावन का परिचय कराने के लिए आमंत्रित किया। तिब्बत में उनके प्रारंभिक जीवन के बारे में बताते हुए, उन्होंने तिब्बती समुदाय में प्रजातंत्र लाने और तिब्बत को लेकर चीन के साथ एक शांतिपूर्ण मैत्री तक पहुँचने के लिए परम पावन के प्रयासों पर प्रकाश डाला। उन्होंने परम पावन की प्रतिबद्धताओं, जो सुख की खोज में मानवीय मूल्यों की भूमिका के प्रति लोगों को जागरूक करना, अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने, तिब्बती भाषा और संस्कृति का संरक्षण और तिब्बत की नाजुक पारिस्थितिकी की सुरक्षा है, को भी रेखांकित किया।

परम पावन ने अपने श्रोताओं को यह बताते हुए अपना संबोधन प्रारंभ किया:

"मैं साधारणतया इस बात पर बल देता हूँ कि मैं मात्र ७ अरब मनुष्यों के बीच एक हूँ, जो शारीरिक मानसिक और भावनात्मक रूप से समान हैं। हम सब सुखी रहना चाहते हैं। हम समस्याओं का सामना नहीं करना चाहते। सुखी होना हमारा अधिकार है। शारीरिक सुख हमें ऐन्द्रिक स्तर पर अस्थायी संतुष्टि देता है। पर यदि हममें चित्त की शांति हो तो फिर चाहे किसी भी प्रकार का शारीरिक विचलन क्यों न आ जाए, वह हमें परेशान नहीं करेगा। आनन्द कुछ ऐसा है जो एक मानसिक स्तर पर होता है। यह हम सभी के लिए एक समान है, फिर चाहे हम अपने बीच की राष्ट्रीयता, जाति, रंग, धर्म की सतही विभिन्नताओं के बारे में सोचें या नहीं।

"जब मैंने दक्षिण अफ्रीका की यात्रा की तो मैं उन लोगों से मिलने गया जो सोवेटो में रहते थे। मैंने उन्हें उनके इस समय की नई लोकतांत्रिक संविधान के अंतर्गत मिलने वाले अवसरों के लिए बधाई दी। उनमें से एक, जिसने बताया कि वह एक शिक्षक था, ने अपना सिर झुका लिया और मुझसे कहा, 'परन्तु हम इन श्वेत लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते क्योंकि हमारे मस्तिष्क इतने अच्छे नहीं हैं।' मैं चौंक गया। मैंने उसका प्रतिवाद किया। मैंने उससे कहा कि कोई भी मस्तिष्क विशेषज्ञ उसे बता सकेगा कि काले और श्वते लोगों के मस्तिष्क में कोई अंतर नहीं है। अंततः उसने एक लम्बी सांस के साथ स्वीकार किया।

"हम तिब्बतियों को चीनी अधिकारियों के बीच कट्टरपंथियों से इस तरह का पूर्वाग्रह झेलना पड़ा है जो हमें अशिक्षित और अंध विश्वास से आक्रांत समझते हैं। परन्तु अनुभव दिखाता है कि जब हम प्रयास करते हैं, तो हम तिब्बती चीनियों के बराबर हैं। कुंजी आत्मविश्वासी होने में है। मैं नियमित रूप से उन लोगों को आत्मविश्वास को बनाए रखने और कठिन परिश्रम करने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ जो स्वयं को बेहतर बनाने का प्रयास कर रहे हैं।

"समस्याएँ उस समय जन्म लेती हैं, जब हम अपने बीच के गौण विभिन्नताओं पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं। समाधान धन अथवा शस्त्र की प्राप्ति में नहीं बल्कि मानवता की एकता की भावना के विकास में है। जब भी मुझे अवसर मिलता है, मैं लोगों को यह बताता हूँ।

"मैं समूचे विश्व के लोगों को यह भी बताता हूँ कि दुनिया के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश भारत में कई धार्मिक परम्पराएँ साथ - साथ सुख से रहती हैं और अन्य लोगों के लिए अच्छा होगा यदि वे इस उदाहरण का अनुपालन करें।"

जो कुछ उनके परिचय में कहा गया था उसे दोहराते हुए परम पावन ने उल्लेख किया कि न केवल उन्होंने तिब्बत के राजनीतिक मामलों के उत्तरदायित्व से संन्यास ले लिया है और इसे एक निर्वाचित नेतृत्व को सौंप दिया है परन्तु उन्होंने भविष्य में किसी भी दलाई लामा द्वारा इस तरह की एक भूमिका लेने का अंत कर दिया है। परन्तु उन्होंने तिब्बत के प्राकृतिक वातावरण के लिए अपनी चिंता को स्पष्ट कर दिया, न केवल तिब्बतियों के विषय में सोचते हुए, परन्तु एशिया भर में एक अरब से अधिक लोगों के लिए, जो उन नदियों के पानी पर निर्भर हैं जो तिब्बत से निकलती हैं।

जहाँ तक तिब्बती संस्कृति का संबंध है, परम पावन ने उल्लेख किया कि बौद्ध धर्म उन तक पहुँचने से पहले तिब्बती अधिकांश रूप से खानाबदोश योद्धा थे। तिब्बती सम्राट द्वारा बौद्ध धर्म की स्थापना के लिए शांतरक्षित, जो नालंदा विश्वविद्यालय के शीर्ष विद्वानों में से एक थे, को आमंत्रित करने के बाद चीजें परिवर्तित हो गईं। वे एक अच्छे भिक्षु, साथ ही एक तीक्ष्ण दार्शनिक और तर्कशास्त्री थे। उनके प्रयासों के परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण नालंदा परम्परा आज मात्र तिब्बतियों के बीच जीवित है जिन्होंने श्रमसाध्य अध्ययन और अभ्यास द्वारा इसे जीवित रखा है। एक परिणाम यह है कि आज वैज्ञानिक चित्त और भावनाओं के कार्य में, जैसा प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वर्णित है, जानने के लिए उत्सुक हैं।

परम पावन ने छात्रों को बताया कि जहाँ वे और उनके शिक्षकों में से कई २०वीं शताब्दी के हैं, एक समय जो जा चुका है, छात्र २१वीं शताब्दी के हैं और विश्व को भविष्य को आकार देने की क्षमता रखते हैं। यदि वे प्रयास करें तो वे सुनिश्चित कर सकते हैं कि आने वाले दशकों में विश्व एक अधिक सुखी और अधिक शांतिपूर्ण स्थान होगा।

"मेरा काम बात करने का है," उन्होंने विनोद भाव से कहा। "पर आपका कार्य करने और परिवर्तन लाने का है।"

छात्रों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए उन्होंने एक से कहा जिसने कुछ युवाओं द्वारा नशीली दवाओं के उपयोग के बारे में पूछा था, कि चित्त और भावनाओं के कार्य की बेहतर ढंग से समझने में समस्याओं का एक अधिक प्रभावी समाधान है। जब एक अन्य जानना चाहता था कि वह क्या है जो दलाई लामा को अन्य लोगों से अलग बनाती है, परम पावन ने उत्तर दिया कि वह स्वयं को केवल एक अन्य मनुष्य समझते हैं और जब वे अस्वस्थ होते हैं तो डॉक्टर भी उनके साथ उसी तरह से व्यवहार करता है।

एक छात्र के प्रश्न का उत्तर देते हुए, जो यह सोच रहा था कि तिब्बतियों के लिए क्या किया गया है, परम पावन ने समझाया कि १९५९ में लगभग ८०,००० लोगों ने निर्वासन में उनका अनुपालन किया। कइयों को कर्नाटक में पुनः आवासित किया गया जहाँ मुख्य महाविहारों की पुनर्स्थापना भी हुई है। उन्होंने उसे बताया जो तिब्बत में रह गए उनमें तिब्बती भावना सशक्त रूप से बनी हुई है। १९७९ में देंग जियाओपिंग के साथ पुनः सम्पर्क प्रारंभ हुआ, पर १९८९ में थियाननमेन घटना के बाद समाप्त हो गया। हालांकि, उन्होंने कहा कि एक अधिनायकवादी व्यवस्था में भी परिवर्तन जारी रहता है।

यह पूछे जाने पर कि एक आध्यात्मिक जीवन और भावनात्मक जीवन में किस तरह सामंजस्य बिठाया जाए, परम पावन ने स्पष्ट किया कि मात्र बौद्ध धर्म एक 'अनात्मन' सिद्धांत सिखाता है और दृश्य होने के बावजूद व्यक्ति और वस्तुओं में स्वभाव सत्ता का अभाव होता है। परम पावन ने छात्रा को बताया कि ६० वर्षों से अधिक समय से इस यथार्थ के विश्लेषण का उनकी विनाशकारी भावनाओं पर गहरा प्रभाव पड़ा था। इन दिनों, उन्होंने कहा, उनमें किसी भी तरह की क्रोध या लगाव की भावना लगभग नहीं के बराबर है। यह लगातार विश्लेषण का एक सीधा परिणाम है, बिना धारणा ध्यान के कारण नहीं है, और न ही क्योंकि उनका चित्त मंद पड़ गया है।

सभागार हँसी से गूंज उठा जब एक युवक ने दलाई लामा से पूछा, 'जीवन का उद्देश्य क्या है?' परम पावन ने उससे कहा कि यह सुख की खोज थी।

"हमारे पास कोई गारंटी नहीं है कि हम सुखी होंगे, हम सिर्फ आशा करते हैं कि हम होंगे। हम आशा रखते हैं कि हमारे समक्ष जो भी समस्याएँ आएँगी हम उन पर काबू पाएँगे और यदि हम हार जाएँ तो हम आशा खो देते हैं, नैराश्य से भर जाते हैं। सुख चित्त की शांति के साथ मेल खाता है और उसकी कुंजी सौहार्दता है। करुणा का विकास साहस और आत्मविश्वास लाता है; सौहार्दता और बुद्धि चित्त की शांति लाते हैं।"

कुलपति ने परम पावन के व्याख्यान की सराहना अभिव्यक्त करने के लिए मंच पर कदम रखा। उन्होंने डॉ टी वी सुब्बा राव से औपचारिक कृतज्ञता ज्ञापन का अनुरोध किया। उन्होंने डॉ वेंकट राव और डॉ विजयकुमार के प्रति परम पावन की यात्रा की व्यवस्था के लिए आभार व्यक्त किया और अन्य सभी लोगों को धन्यवाद दिया जिन्होंने इस कार्यक्रम की सफलता में योगदान दिया था। उन्होंने छात्रों को भी व्याख्यान में आने और अपने प्रश्न रखने हेतु धन्यवाद दिया। अंत में उन्होंने परम पावन के प्रति व्याख्यान के लिए कृतज्ञता व्यक्त की जिसका उन्होंने इस सुझाव के रूप में संक्षेपीकरण किया -

"यदि आप स्वयं के लिए सुख खोजना चाहते हैं; तो दूसरों को आनन्द दें।"

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