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परम पावन दलाई लामा का युवा तिब्बती छात्रों के लिए प्रवचन का तीसरा और समापन दिवस ३/जून/२०१६

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थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, भारत, ३ जून २०१६ - आज परम पावन दलाई लामा द्वारा ३००० से अधिक युवा तिब्बती छात्रों के लिए मुख्य रूप से निर्देशित प्रवचन के तीन दिन की श्रृंखला का अंतिम सत्र था।


यह अपर टीसीवी छात्रों के एक समूह के चित्त विज्ञान के ग्रंथ से एक पाठ से प्रारंभ हुआ, ऐसा सस्वर पाठ, जिसमें परम पावन भी सम्मिलित होते प्रतीत हुए। तत्पश्चात उन्होंने मंजुश्री अनुज्ञा के लिए आवश्यक तैयारी की, जो वे बाद में देने वाले थे।

बोधिचित्तोत्पाद के समारोह की अपनी प्रस्तावना में उन्होंने मैत्रेय के अभिसमयालंकार को उद्धृत किया, जो बोधिचित्त को सभी सत्वों के लिए बुद्धत्व की प्राप्ति का उद्देश्य कहकर पारिभाषित करता है। उन्होंने आगे कहाः

"जब भी सत्व स्वयं के विषय में सोचते हैं, तो अपने शरीर और चित्त, अपने परिवार तथा मित्रों को लेकर उनमें एक आत्म की भावना रहती है। मनुष्य में उनके मनोवैज्ञानिक शारीरिक समुच्चय के नियंत्रक के रूप में 'मैं' की एक भावना होती है। परन्तु बौद्ध शिक्षा किसी ऐसे आत्म के वस्तुनिष्ठ अस्तित्व को नकारती है। यह किसी ठोस 'मैं' की किसी धारणा को खारिज करती है।

"यदि आप मात्र अपने विषय में सोचते हैं, तो आप स्वयं को नुकसान में डालते हैं। यदि इसके स्थान पर आप अपना हृदय खोल दें और दूसरों के प्रति अपनी चिंता का विस्तार करें तो आप भय और चिंता से मुक्त होंगे। यदि आप सभी सत्वों को अपने समान समझें, जो दुःख नहीं चाहते तो आत्म पोषण कम होगा। अपने आसपास के लोगों को देखें। वे जो दूसरों के प्रति सम्मान और चिंता का भाव रखते हैं वे अधिक सुखी होते हैं, वे जो अधिक आत्म केन्द्रित होते हैं, वे कम सुखी होते हैं। उनके विषय में सोचें जो अपनी मिठाई या जो भी अच्छी चीजें उनके पास होती हैं उन्हें आपस में बांटते हैं और वे जो उन्हें केवल अपने लिए ही रखते हैं - उनमें से कौन अधिक सुखी दिखाई पड़ता है?

"युवा तिब्बतियों के रूप में अपने विचारों के क्षेत्र को अन्य लोगों तक विस्तृत करें, तिब्बत के ६ लाख तिब्बतियों के लिए, एशिया के अन्य लोगों के लिए, समूचे विश्व की आबादी के लिए और सभी सत्वों के लिए। बोधिचित्त वह चित्त है, जो सभी सत्वों के लिए बुद्धत्व प्राप्त करने की कामना करता है। इसमें दो प्रणिधान, दूसरों के हित का विचार और बुद्धत्व प्राप्ति की सोच शामिल है।"

परम पावन ने कहा कि किस तरह ४० या ५० वर्ष पूर्व वे सोचते थे कि बोधिचित्त सराहनीय था पर उसका विकास बहुत अधिक कठिन था। फिर १९६७ में उन्हें खुनु लामा रिनपोछे से बोधिसत्वचर्यावतार की एक व्याख्या प्राप्त हुई जिन्होंने सुझाया कि वे भी जितनी बार संभव हो उसकी शिक्षा दें। क्रमशः उनकी रुचि बढ़ी और उन्होंने कहा कि उन्हें लगा कि बोधिचित्त को समझा जा सकता था। शांतरक्षित ने कहा था कि तीक्ष्ण बुद्धि वाले पहले शून्यता की समझ को विकसित करते हैं और उसके आधार पर बोधिचित्त का विकास करते हैं। परम पावन ने कहा कि वे स्वयं को उस वर्ग में शामिल करते हैं। उन्होंने कहा कि जब से वे बीस वर्ष की आयु के थे, उन्होंने शून्यता के विषय पर चिन्तन किया है पर अंत में महत्वपूर्ण बात उन दोनों विचारों को मिलाने की है और उन्होंने चन्द्रकीर्ति के 'मध्यमकावतार' से एक छन्द उद्धृत किया:

विकसित हुए सांवृतिक और परमार्थिक दोनों विशाल एवं श्वेत पंखों
से
हंसों का राजा जन की हंसों के आगे उड़ान भरता है 
कुशल वायु की शक्ति से,
बुद्धत्व के गुणों के सागर को पार करता है।

बोधिचित्तोत्पाद समारोह के दौरान परम पावन चुगलगखंग में एक अवलोकितेश्वर मूर्ति से संबंधित एक कहानी बताने के लिए रुके। उन्होंने उल्लेख किया कि उन्होंने एक विशिष्ट स्वयंभू अवलोकितेश्वर के चारों ओर प्रदक्षिणा करने का स्वप्न देखा था। मूर्ति ने उन्हें निकट बुलाया और उन्हें गले लगाया और उन्होंने उसके द्वारा आनन्द भरे प्रयास रखने के संबंध में एक छंद का पाठ सुना। उन्होंने बताया कि स्वप्न की वह मूर्ति सांस्कृतिक क्रांति के दौरान नष्ट हो गयी थी, पर उसके कुछ भाग वे निर्वासन में अपने साथ लाए थे। उन्हें वर्तमान १००० भुजाओं, १००० नेत्रों वाले मूर्ति के अंदर रखा गया है जो आज मन्दिर में प्रतिस्थापित है। परम पावन ने कहा:

"जब इसका निर्माण किया गया था, तो इस प्रतिमा को इस तरह बनाया गया था कि हम अंत में इसे विघटित कर तिब्बत वापस ले जाने में सक्षम हो पाएँगे। और आप सबको मेरे साथ होना होगा जब यह समय आएगा।"

तत्पश्चात परम पावन मंजुश्री अनुज्ञा दी, जो रिनजुंग ज्ञाचो, जो साधनाओं व अनुज्ञाओं के एक संकलन है तथा चतुर्थ पंचेन रिनपोछे तेनपे ञिमा (१७८१ - १८५४) द्वारा संकलित है। इसके बाद उन्होंने डोमतोनपा के 'अात्मप्रेरित श्रद्धा के वृक्ष' से छंदों का पाठ पूरा किया।

अपने अंतिम टिप्पणी में परम पावन ने एक वयोवृद्ध और बहुश्रुत अमदो लामा का संदर्भ दिया, जिन्हें एक गांव में प्रवचन के लिए आमंत्रित किया गया था। जब उन्होंने उत्तर दिया कि अत्यंत वृद्ध होने के कारण वह यात्रा करने की स्थिति में न थे तो गांव वालों ने कहा, "ठीक है कृपया आप ऐसे ही आ जाइए फिर चाहे वह मात्र हमें आशीर्वाद देने के लिए ही क्यों न हो।" वे गए और उन्होंने एक लंबा और गहन प्रवचन दिया, जिसके अंत में उन्होंने लोगों से कहा कि "मैं उस व्यक्ति की तरह नहीं हूँ जो अपना सांसारिक हाथ लोगों के सर पर उन्हें मुक्ति में सहायता करने के लिए रखता है। मैं केवल आप लोगों को बुद्ध की शिक्षाओं को समझने में सहायतार्थ निर्देश दे सकता हूँ।"

टीसीवी कर्मचारियों का एक वरिष्ठ दल परम पावन को भेंट देने के लिए जिसमें बुद्ध के चित्र, दीर्घायु के बुद्ध अमितायुस की प्रार्थना की ११३ प्रतियां शामिल थे, पंक्तिबद्ध हुआ। साथ हुए स्तवन पाठ में टीसीवी धर्मशाला के निदेशक ञोडुब वंगदू ने अवलोकितेश्वर की हिम प्रदेश के लोगों की सुरक्षा करने की प्रतिज्ञा का स्मरण किया जिसको दलाई लामा के वंशजों ने बनाए रखा है, जैसा कि इस समय परम पावन कर रहे हैं। उन्होंने आभार व्यक्त किया और परम पावन के दीर्घायु की कामना की।
 
परम पावन मुस्कराए, करबद्ध किया और कहा:

"हम अगले वर्ष पुनः मिलेंगे।"
 

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