परम पावन 14 वें दलाई लामा
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'बोधिचित्तविवरण' और 'बोधिपथप्रदीप' पर प्रवचन ११/अगस्त/२०१६

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ठिकसे, लद्दाख, जम्मू एवं कश्मीर, भारत, १० अगस्त २०१६- आज प्रातः ठिकसे विहार के नीचे प्रवचन स्थल पर जाते हुए परम पावन दलाई लामा ने स्थानीय लोगों का अभिनन्दन किया, जो उनकी एक झलक पाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। सिंहासन पर बैठकर उन्होंने सभा को बतायाः

साधारणतया जब मैं धर्म पर प्रवचन देता हूँ तो मैं दो चरणों में करता हूँ। सबसे प्रथम तो मैं एक सामान्य परिचय देता हूँ, तत्पश्चात व्याख्यायित करता हूँ कि किस प्रकार अभ्यास किया जाए। आज मैंने भूमिका के रूप नागार्जुन के महान ग्रंथ 'बोधिचित्तविवरण' जिसके उपरांत जोवो अतीश दीपंकर श्रीज्ञान का 'बोधिपथप्रदीप'का चयन किया है।"


परम पावन ने श्रोताओं को स्मरण कराया कि वे कोई मनोरंजन कार्यक्रम देखने अथवा केवल प्रार्थना और मंत्रों का पाठ करने के लिए एकत्रित नहीं हुए थे।
"चूँकि आप यहाँ बौद्ध प्रवचन सुनने के लिए एकत्रित हुए हैं, आपको समझना चाहिए कि 'धर्म' शब्द का संदर्भ शिक्षाओं को अभ्यास में लाकर अपने अंदर एक आध्यात्मिक परिवर्तन लाना है। इसी को कल हमारे मुसलमानों ने ठीक ढंग से इंगित किया। मात्र इच्छाओं या प्रार्थना के आधार पर इस तरह के परिवर्तन नहीं किए जा सकते। यह केवल शिक्षाओं को अपने अंदर एकीकृत कर हो सकेगा। हमारी समस्याओं के स्रोत हमारे क्लेश हैं। चूँकि हम सब सुखी होना चाहते हैं और दुःख से बचना चाहते हैं, हमें यह जानने की आवश्यकता है कि इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किसका त्याग किया जाए और किसका विकास किया जाए। एक परिवर्तन लाने के लिए हमें शिक्षा को अपने भीतर व्यवहार में लाने की आवश्यकता है और ऐसा करने के लिए हमें सुनने और सीखने की आवश्यकता है कि इसमें क्या शामिल है। सबसे पहले हम उन छंदों का पाठ करें जिनका संबंध त्रिरत्न में शरणगमन तथा बोधिचित्तोत्पाद से हैः

बुद्ध, धर्म और संघ में
जब तक बुद्धत्त्व न मिले उनकी शरण में जाता हूँ
मेरे द्वारा दान आदि किए गए पुण्यों के कारण
जगत हितार्थ मैं बुद्ध बनूँ

प्रवचन सुनने के लिए एक उचित प्रेरणा स्थापित करने के महत्व को समझाने के बाद, परम पावन ने बल दिया कि बौद्धों को आज २१वीं शताब्दी का बौद्ध होने की आवश्यकता है। इसका अर्थ है कि तेज़ी से हो रहे भौतिक विकास के संदर्भ में यह समझना कि बुद्ध की शिक्षा क्या है।

नागार्जुन के་ 'बोधिचित्तविवरण' का पठन प्रारंभ करते हुए परम पावन ने उल्लेख किया कि इस ग्रंथ का कोई व्याख्यात्मक संचरण नहीं है। फिर भी उन्होंने गेलुग परम्परा के वर्तमान प्रमुख क्याब्जे रिज़ोंग स्रस रिनपोछे, जो परम पावन के गुरुओं में से एक हैं, से पठन संचरण प्राप्त किया था। उन्होंने कहा कि यह दुख की बात है कि इस तरह के ग्रंथ प्रातः हमारी वेदियों में सम्मान की वस्तुओं के रूप में रखे रहते हैं, इसके बजाय कि उन्हें नीचे उतार कर पढ़ा जाना चाहिए। परम पावन ने जानबूझ रिज़ोंग रिनपोछे से इस पाठ के प्रसारण के लिए अनुरोध किया था ताकि वह उसकी शिक्षा दे सकें और अन्य इसे पढ़ें।

उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि कुछ विद्वानों ने इसे नागार्जुन का ग्रंथ न मानकर इस पर प्रश्न उठाए हैं क्योंकि उनके शिष्यों बुद्धपालित, भवविवेक या चन्द्रकीर्ति में से किसी एक ने भी अपने दार्शनिक ग्रंथों में इसका संदर्भ नहीं दिया। परन्तु अपने 'प्रदीपोद्योतन' में चन्द्रकीर्ति ने ग्रंथ के प्रारंभिक उद्धरण को गुह्यसमाज तंत्र के समापत्ति चरण के परिप्रेक्ष्य में समझाया है। उन्होंने इन पंक्तियों को छह वैकल्पिक तथा विधा के संदर्भ में समझाया है, जो कि भारतीय टीका संबंधी परम्परा में तंत्र की व्याख्या का एक तरीका है। परन्तु यहाँ नागार्जुन विषय परक प्रभास्वरता चित्त की तांत्रिक समझ से नहीं अपितु वस्तुनिष्ठ प्रभास्वरता का संदर्भ देते हैं, दूसरे शब्दों में प्रासंगिक माध्यमिका के दृष्टिकोण से शून्यता की समझ।

यद्यपि उन्होंने अधिकांश रूप से बोधिचित्तविवरण के छंदों को पढ़ा, पर परम पावन ने गुह्यसमाज तंत्र के दूसरे अध्याय, वैरोचन बुद्ध अध्याय से प्रारंभिक प्रशस्ति उद्धरण पर कुछ समय लगायाः

यह कथित हैः
सभी वस्तुओं से रहित
स्कन्ध, धातु और आयतन
ग्राह्य और ग्राहक से वर्जित
धर्म नैरात्म्य और समता
स्वचित्त आदि से अनुत्पन्न के कारण
यह शून्यता की प्रकृति है।


परम पावन ने इस छंद को एक दार्शनिक परम्परा द्वारा दूसरे परम्परा के प्रति आपत्ति के रूप में समझाया। प्रथम पंक्ति में बौद्ध परम्परा, वैभाषिक और सौतांत्रिक के अनुयायी स्थायी, अपरिवर्तनीय, एकल, स्वभाव सत्ता वाले आत्मा के अबौद्ध विचारों का खंडन करते हैं तथा इस बात पर बल देते हैं कि किसी सत्व के मानसिक तथा शारीरिक घटक अनित्य हैं। आत्म के प्रति इस तरह की भ्रांति साधारण सत्वों में स्वाभाविक रूप से नहीं होती, यह दार्शनिक अटकलों द्वारा प्राप्त होती है। दूसरी और तीसरी पंक्तियाँ चित्तमात्र परम्परा द्वारा वैभाषिकों के नैरात्म्य के दृष्टिकोण के खंडन का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो बल देता है कि वस्तुओं का एक बाह्य यथार्थ है। चित्तमात्र परम्परा के अनुसार सब कुछ हमारी अपनी धारणा का प्रतिबिम्ब है और किसी भी वस्तु का कोई बाह्य यथार्थ नहीं है। अतः वे एक ऐसे शून्यता पर ज़ोर देते हैं जो वस्तु और विषय के हर द्वैत को त्यागती है और दावा करती है कि स्कंध, धातु और आयतन सभी हमारे चित्त के मात्र प्रतिबिम्बित रूप हैं।

कोई वास्तविक स्वभाव सत्ता का अभाव रखते हुए सभी आंतरिक तथा बाह्य धर्मों के समान होने के कारण चित्तमात्र परिप्रेक्ष्य से शून्यता की व्याख्या माध्यमिका के परिप्रेक्ष्य से संभव नहीं है। अतः अन्य वस्तुओं जैसी धारणा 'नैरात्म्य' हैं क्योंकि वे अन्य कारकों पर निर्भर होती हैं जैसे इंद्रियाँ। अतः माध्यमिक दृष्टिकोण से, 'व्यक्ति का चित्त आदि रूप से अजन्मा है' चूँकि चित्त और उसकी वस्तुएँ अन्योन्याश्रित हैं। वे समान रूप से शून्यता की प्रकृति में हैं, जिसका यह अर्थ नहीं कि उनका कोई अस्तित्व नहीं है, पर वे प्रतीत्य समुत्पादित हैं और अतः स्वभाव सत्ता से रहित हैं।

चित्तमात्र के बाह्य अस्तित्व की अस्वीकृति के संबंध में, परम पावन ने क्वांटम भौतिकी की समझ, कि किसी का भी वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं होता, का उल्लेख किया। उन्होंने उसे उद्धृत करते हुए कहा कि जब तक दृष्टा हो तब तक दृश्य है, पर जब दृष्टा नहीं होता तो वस्तुओं के अस्तित्व की बात नहीं की जा सकती। यह चित्त मात्र के समर्थकों के वस्तु और विषय के साथ साथ अवलोकन के तर्क के समान है।

परन्तु माध्यमक परम्परा के स्वातांत्रिक, योगाचार और सौतांत्रिक के अनुयायी वस्तुनिष्ठ अस्तित्व पर बल देते हैं जो प्रासंगिक माध्यमकों द्वारा पूरी तरह अस्वीकृत है। उनकी मान्यता है कि वस्तुओं, पुद्गलों और अनुभवों की सभी वस्तुनिष्ठ अस्तित्व की भ्रातियों को त्यागना होता है। यदि किंचित भौतिकता अथवा वस्तुनिष्ठता बचती है तो क्लेशों का विलयन संभव न होगा जिसके कारण हम भवचक्र में बंधे हुए हैं। भवचक्र में अस्तित्व के मूल में यह आधारभूत भ्रांति है कि वस्तुओं की स्वभाव सत्ता है जैसी वे चेतना में प्रकट होती हैं।

परम पावन ने टिप्पणी की कि ग्रंथ का मुख्य विषय सांवृतिक और परमार्थिक बोधिचित्तोत्पाद है। उन्होंने उनके दैनिक आधार विकास पर बल दिया, क्योंकि उनके बिना हमारे धर्म अभ्यास और देव योग का अभ्यास कोई अर्थ नहीं रखता। यदि बोधिचित्त हमारा प्रमुख अभ्यास है तो सभी बाधाओं का उन्मूलन हो जाएगा और सभी पुण्यों का अर्जन होगा। यदि हमें बुद्धत्व प्राप्त करना है तो सांवृतिक बोधिचित्त को हमारे शून्यता की समझ का पूरक होना होगा। बोधिचित्त के परोपकारी हृदय के बिना हम श्रावकों के मार्ग तक पहुँचने में समर्थ हो सकते हैं, परन्तु बोधिसत्व के नहीं।
 


'बोधिचित्तविवरण' के पाठ के बाद परम पावन 'बोधिपथप्रदीप' की ओर मुड़े। उन्होंने प्राचीन तिब्बती सम्राट, ल्हा लामा येशी ओ और उनके भतीजे ल्हा लामा जंगछुब ओ, जिन्होंने ईसा की ११वीं सदी में तिब्बत में बौद्ध धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अतीश को आमंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, के वंशजों द्वारा झेली गई कठिनाइयों का वर्णन किया। जब जंगछुब ओ ने ऐसी शिक्षा का अनुरोध किया जो सभी तिब्बतियों के लिए हितकर होगा अतीश ने 'बोधिपथप्रदीप' की रचना की।

इसके बाद सभी तिब्बती बौद्ध परम्पराओं ने ग्रंथों की रचना की है जो 'पथ क्रम' के समान हैं। ञिङमा परम्परा में लोंगछेन रबजमपा की 'चित्त की प्रकृति में विश्राम'; कर्ग्यू परम्परा में गमपोपा का 'मुक्ति अलंकार'; और सक्या परम्परा में 'तीन दर्शन' इत्यादि। जे चोंखापा का 'बोधिपथ क्रम' और उसका लघु संस्करण अतीश की शैली का अनुसरण करते हैं सिर्फ यह छोड़कर कि उन्होंने महान और मध्यम ग्रंथ दोनों में महान विपश्यना के भाग को सविस्तार बताया। परम पावन ने श्रोताओं को शून्यता के माध्यमक दृष्टिकोण पर चोंखापा के पांच प्रमुख ग्रंथ अच्छी तरह पढ़ने के लिए प्रोत्साहित कियाः उनके दोनों 'पथ क्रम' ग्रन्थ का महान विपश्यना का भाग, नागार्जुन के 'प्रज्ञा ज्ञान मूल कारिका' का व्याख्या ‘युक्ति सागर':, 'मध्यमकावतार' की व्यापक व्याख्या ‘सन्धि प्रकाश’: सूत्र का नेयार्थ और नेतार्थ के अंतर का ग्रंथ ‘सुभाषित हृदय'।

परम पावन ने 'बोधिपथप्रदीप' के मध्यवर्ग के सत्वों से संबंधित प्रारंभ से लेकर अंत तक के छंद पढ़े और कहा कि वे दीर्घायु अभिषेक के पश्चात प्रवचन कल समाप्त करेंगे जिसके बाद परम पावन के लिए दीर्घायु समर्पण होगा। 

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