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आज के विश्व में किस तरह के बौद्ध बनें ६/जुलाई/२०१७

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एक बार लोगों ने किसी धर्म को अपना लिया तो उसके पश्चात उन्हें ईमानदारी से उसका पालन करना चाहिए। भगवान, बुद्ध, अल्लाह या शिव पर सच्ची आस्था एक मानव को ईमानदार होने के लिए प्रेरित करना चाहिए। कुछ लोग अपने धर्म पर विश्वास रखने का दावा करते हैं पर उसके नैतिक हिदायतों के विपरीत कार्य करते हैं। वे अपने बेईमान और भ्रष्ट कार्यों की सफलता के लिए प्रार्थना करते हैं तथा भगवान या बुद्ध से उनके अपराधों को छुपाने में उनकी सहायता करने के लिए कहते हैं। ऐसे लोगों को अपने आप को धार्मिक कहलवाने का कोई अर्थ नहीं है।

आज विश्व एक संकट का सामना कर रहा है, जो आध्यात्मिक सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों के प्रति सम्मान के अभाव से संबंधित है। इस तरह के गुण समाज में कानून या विज्ञान द्वारा थोपे नहीं जा सकते और न ही भय नैतिक आचरण को प्रेरित कर सकता है। बल्कि, लोगों को नैतिक सिद्धांतों के मूल्य में आस्था होनी चाहिए ताकि वे नैतिक रूप से जीवन जीने की कामना कर सकें।

उदाहरणार्थ अमेरिका और भारत में ठोस सरकारी संस्थान हैं, पर उनमें संलग्न बहुत से लोगों में नैतिक सिद्धांतों की कमी है। सभी नागरिकों के लिए आत्म-अनुशासन और आत्म-संयम - मुख्य कार्यकारी अधिकारियों से कानून बनाने वाले और शिक्षकों तक - एक अच्छे समाज को बनाने के लिए आवश्यक हैं। परन्तु इन गुणों को बाहर से थोपा नहीं जा सकता। उनके आंतरिक विकास की आवश्यकता होती है। इसी कारण आधुनिक विश्व में आध्यात्मिकता और धर्म प्रासंगिक हैं।

भारत, जहाँ मैं अब रहता हूँ, लगभग ३,००० वर्षों से धर्मनिरपेक्षता, समग्रता और विविधता के विचारों का घर रहा है। एक दार्शनिक परम्परा दावा करती है कि केवल उसी का अस्तित्व है जो हमारी पाँच इंद्रियों के माध्यम से जानी जाती है। अन्य भारतीय दार्शनिक परम्पराएँ इस शून्यवादी दृष्टिकोण की आलोचना करती हैं पर फिर भी ऐसी मान्यता रखने वाले लोगों को ऋषि मानते हैं। मैं इस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देता हूँ: एक दयालु व्यक्ति जो दूसरों के साथ गहन धार्मिक मतभेद के बादजूद दूसरों का अहित नहीं करता।

विगत शताब्दियों में, तिब्बत बाकी विश्व के बारे में बहुत कम जानते थे। हम विश्व के उच्चतम पहाड़ों से घिरे एक उच्च और चौड़े पठार पर रहते थे। लगभग सभी, केवल मुसलमानों के एक छोटे समुदाय को छोड़कर, बौद्ध थे। हमारे देश में बहुत कम विदेशी आए। जब से हम १९५९ में निर्वासन आए, तिब्बती विश्व के बाकी हिस्सों के साथ संपर्क में रहे हैं। हम उन धर्मों, जातीय समूहों और संस्कृतियों से संबंध रखते हैं जो वैचारिक दृष्टिकोणों का एक व्यापक रूप रखते हैं।

इसके अतिरिक्त तिब्बती युवाओं को अब एक आधुनिक शिक्षा प्राप्त हो रही है जिसमें वे उन मान्यताओं के संपर्क में हैं, जो परंपरागत रूप से उनके समुदाय में नहीं मिलते। अब यह आवश्यक है कि तिब्बती बौद्ध लोग दूसरों को तर्क के आधार पर अपने सिद्धांतों और विश्वासों को स्पष्ट रूप से समझाने में सक्षम हों। मात्र बौद्ध धर्मग्रंथों से उद्धृत करने से वे लोग, जिनका पालन पोषण बौद्ध के रूप में नहीं हुआ, बुद्ध सिद्धांत की वैधता नहीं मान सकते। यदि हम केवल शास्त्रों का उद्धरण देते हुए अपने विचार प्रमाणित करने का प्रयास करें तो ये लोग उत्तर दे सकते हैं: "प्रत्येक के पास उद्धृत करने के लिए पुस्तक है।"

आज धर्म तीन प्रमुख चुनौतियों का सामना कर रहा है: साम्यवाद, आधुनिक विज्ञान तथा उपभोक्तावाद और भौतिकवाद का संयुक्त रूप। यद्यपि कई दशकों पूर्व शीत युद्ध समाप्त हो गया, बौद्ध देशों में साम्यवादी विचार और सरकारें अभी भी जीवन को प्रभावित करती हैं। तिब्बत में, साम्यवादी सरकार भिक्षुओं और भिक्षुणियों की प्रव्रज्या को नियंत्रित करती है और साथ ही विहारों और भिक्षुणी विहारों में जीवन को नियमित करती है। यह शिक्षा प्रणाली को नियंत्रित करती है और बच्चों को सिखाया जाता है कि बौद्ध धर्म पुराना फैशन है।

आधुनिक विज्ञान ने अब तक स्वयं को ऐसी वस्तुएँ के अध्ययन तक सीमित रखा है जो भैतिक प्रकृति के हैं। वैज्ञानिक अधिकांश रूप से उन की जांच करते हैं जिन्हें वैज्ञानिक उपकरणों के साथ मापा जा सकता है और इस तरह उनका परीक्षण और ब्रह्मांड की उनकी समझ का क्षेत्र सीमित हो जाता है। पुनर्जन्म और मस्तिष्क से अलग चित्त की उपस्थिति जैसी बातें वैज्ञानिक जांच के दायरे से परे हैं। कुछ वैज्ञानिक, यद्यपि उनके पास कोई प्रमाण नहीं है कि इन वस्तुओं का अस्तित्व नहीं हैं, पर उन पर ध्यान देने योग्य नहीं मानते। लेकिन आशावादी होने के कारण हैं। हाल के वर्षों में, मैंने कई उन्मुक्त विचारों वाले वैज्ञानिकों से भेंट की है, और हमने पारस्परिक लाभकारी चर्चाएँ की हैं जिन्होंने हमारे सामान्य बिंदुओं के साथ-साथ हमारे अलग-अलग विचारों को उजागर किया है - इस प्रक्रिया में वैज्ञानिकों और बौद्ध विश्व के विचारों का विस्तार हुआ है।

और फिर भौतिकवाद और उपभोक्तावाद है। धर्म नैतिक आचरण के मूल्य को समझता है, जिसमें संभव है विलंब से संतुष्टि प्राप्त हो, जबकि उपभोक्तावाद हमें तात्कालिक सुख की दिशा में निर्देशित करता है। आस्था परम्पराएँ आंतरिक संतुष्टि और एक शांतिपूर्ण चित्त पर बल देती हैं, जबकि भौतिकवाद कहता है कि सुख बाहरी वस्तुओं से आता है। धार्मिक मूल्य जैसे दयालुता, उदारता और ईमानदारी अधिक धन बनाने और अधिक और "बेहतर" चीजें होने की भीड़-भाड़ में पराजित हो जाते हैं। बहुत से लोगों के चित्त उलझन में हैं कि सुख क्या है और इसके हेतुओं का निर्माण किस तरह किया जाए।

यदि आप बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन करें तो संभवतः आप पाएंगे कि उनमें से कुछ सामाजिक मूल्यों, विज्ञान और उपभोक्तावाद पर आपके विचारों के अनुरूप हैं - और कुछ नहीं हैं। जो ठीक है। आप खोज जारी रखें और जो पाएँ उस पर चिन्तन करें। इस तरह आप जिस निष्कर्ष पर भी पहुँचेंगे वह कारण पर आधारित होगा, न कि परम्परा, सहयोगियों के दबाव या अंधविश्वास पर।

१४वें दलाई लामा, तेनज़िन ज्ञाछो  तिब्बत के आध्यात्मिक नेता हैं। वह थुबतेन छोडोन के साथ, 'एप्रोचिंग द बुद्धिस्ट थॉट' के सह लेखक हैं, जिसमें से यह लेख अनुकूलित है।

मूल रूप से जुलाई ६, २०१७ को वॉल स्ट्रीट जर्नल में प्रकाशित।

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