परम पावन 14 वें दलाई लामा
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आधुनिक युग के लिए सार्वभौमिक नैतिकता की प्रासंगिकता, तुमकुर विश्वविद्यालय २६/दिसम्बर/२०१७

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बेंगलुरु, कर्नाटक, भारत, एक धुंधली प्रातः खिली सुबह में परिवर्तित हो गई जब आज परम पावन दलाई लामा गाड़ी द्वारा बेंगलुरु से तुमकुर विश्वविद्यालय के लिए रवाना हुए। आगमन पर कुलपति और कुलसचिव के साथ-साथ सेरा-जे महाविहार के उपाध्याय ने उनका स्वागत किया। गूंज करते ढोलक और श्रृंग वादकों के साथ वे श्री श्री शिवकुमार महा स्वामीजी सभागार पहुँचे। शुभ दीप प्रज्ज्वलन के उपरांत पहले भारतीय गायकों के एक मिश्रित समूह ने सस्वर गान गाया, जिसके बाद सेरा-जे के भिक्षुओं ने प्रार्थना की। कुलपति, कुलसचिव तथा उपाध्याय ने परम पावन का औपचारिक रूप से स्वागत किया।

अपने परिचय में कुलपति प्रोफेसर जयशील ने टिप्पणी की कि सभी उपस्थित लोग परम पावन को सुनने के उत्सुक थे। उन्होंने तुमकुर तथा सेरा-जे की भागीदारी की समीक्षा की जिसमें उन परियोजनाओं का उल्लेख किया गया है, जिनका वे सह-संचालन कर रहे हैं, जिसमें छात्रों का आदान प्रदान और परम पावन की पुस्तकों का कन्नड़ में अनुवाद शामिल है।
 
सेरा-जे उपाध्याय तेनज़िन छोसंग रिनपोछे ने महाविहार के तुमकुर विश्वविद्यालय के साथ सम्बन्ध बताते एक रिपोर्ट को पढ़ी। दोनों संस्थानों के बीच के २०१२ में हस्ताक्षरित समझौता ज्ञापन का इस वर्ष नवीनीकिरण हुआ । उन्होंने उन सम्मेलनों और कार्यशालाओं को सूचीबद्ध किया,जो उन्होंने अपने समझौते की प्रारंभिक अवधि के दौरान एक साथ आयोजित की थी।
 
परम पावन से सेरा-जे महाविहार द्वारा संपादित और प्रकाशित की जाने वाली पांच पुस्तकों के विमोचन का अनुरोध किया गया। उसमें भोट भाषा से अंग्रेजी में अनुवादित बौद्ध सिद्धांतों का एक ब्यौरा जिसका प्रकाशन एक द्विभाषी संस्करण के रूप शामिल था; अंग्रेज़ी से भोट भाषा में अनूदित महायान के इतिहास और संस्कृति का ब्यौरा; अंग्रेज़ी से भोट भाषा में अनूदित निबंध व लेखों की एक पत्रिका; चीनी में 'अभिसमयालंकार' से संबंधित सत्तर विषय और चीनी में अनुवाद की गई अवलोकितेश्वर पर टिप्प्णियां थी।

परम पावन ने अपना व्याख्यान श्रोताओं का सम्मानित भाइयों और बहनों, युवा और बुज़ुर्गों के रूप अभिनन्दित कर प्रारंभ किया। 

"वास्तव में, मैं यहां पुनः एक बार आकर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं अब ८२ से अधिक वर्ष का हूँ और अपने समय में मैंने बहुत कुछ सीखा है और कई चीज़ें देखी हैं। कुछ लोग कहते हैं कि 'बिग बैंग' १२ अरब वर्ष पहले हुआ , कुछ अन्य बल देकर कहते हैं कि यह २५ अरब वर्ष पूर्व हुआ था। जो भी हो कहा जाता है कि लगभग ५ अरब वर्ष पूर्व सूर्य प्रकट हुआ था, जिसके पश्चात हमारे सौर मंडल में जीवन प्रकट हुआ और समय के साथ मानव का विकास हुआ। 

"मनुष्यों ने भाषा विकसित की। हमारे मस्तिष्क कुछ विशिष्ट हैं, वे हमें बदलने और विकसित करने की इस तरह की क्षमता प्रदान करते हैं जो अन्य स्तनधारी करने में असमर्थ हैं। परन्तु इस शक्ति में व्यर्थ विनाश की क्षमता भी शामिल है। हम शेरों और बाघों जैसे शक्तिशाली हिंसक जानवरों को आक्रामक और हिंसक कह सकते हैं, पर मुझे एक बार जानकर आश्चर्य हुआ था कि वे कितने शांतिपूर्ण हो सकते हैं। यदि उन्हें भली भांति भोजन दे दिया जाए तो उनमें शिकार और मारने की कोई इच्छा नहीं होती।

"मनुष्य, दूसरी ओर बुद्धिमान हैं, पर यदि उनकी बुद्धिमत्ता क्लेशों से नियंत्रित हो तो उनमें कठिनाइयाँ उत्पन्न करने की बहुत क्षमता होती है। क्या इसका यह अर्थ है कि मानव प्रकृति अच्छी है या बुरी? वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रमाण हैं कि मानव प्रकृति अनिवार्य रूप से करूणाशील है। अनुभव बताते हैं कि अपनी बुद्धि का उपयोग करके हम इस बीज को पोषित कर सकते हैं और इसे अनंत करुणा तक बढ़ा सकते हैं।
 
"हम अपनी बुद्धि का उपयोग यह पता लगाने के लिए भी कर सकते हैं कि हमारी कौन सी भावनाएं क्लेश दे रही हैं और कौन सी हैं जो रचनात्मक हैं। वैज्ञानिकों ने पाया है कि निरंतर भय और क्रोध, उदाहरण के लिए, हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को कम करती हैं, जबकि सौहार्दता तथा चित्त की शांति हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अच्छी है। इसी कारण हमें भावनात्मक स्वच्छता की संहिता को अपनाने की आवश्यकता है।
 
"भावनाएँ हमारे चित्त का अंग हैं। क्रोध का कुछ रक्षात्मक कार्य हो सकता है, पर यदि इसकी अति हो जाए तथा नियंत्रण से बाहर हो तो यह हमारे चित्त की शांति को व्याकुल करता और हम जहाँ भी हों वहाँ के वातावरण को विचलित कर देता है।"
 
परम पावन ने समझाया कि प्रथागत रूप से धार्मिक परंपराओं ने सहिष्णुता और क्षमा का एक संदेश दिया है, पर आज शिक्षा प्रणाली अधिक प्रभावशाली है। दुर्भाग्यवश, यद्यपि आधुनिक शिक्षा ज्ञान के संदर्भ में जो सम्प्रेषण करती है वह अत्यधिक विकसित है, पर इसमें आंतरिक मूल्यों तथा चित्त की शांति पर ध्यान देने की कमी के कारण यह एक स्वस्थ, सुखी समाज का निर्माण करने में विफल रहती है। इसके लिए इसे अधिक समग्र होने और सार्वभौमिक मूल्यों को प्रदान करने की आवश्यकता है।

परम पावन ने कहा कि दुनिया के विभिन्न भागों में पीड़ा भरी हुई है जिसमें निर्दोष लोगों की मृत्यु हो गई है और बच्चे भुखमरी का शिकार हो रहे हैं। उन्होंने दुःख से कहा कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो २१वीं शताब्दी विगत २०वीं सदी से अलग न होगी। उन्होंने टिप्पणी की कि वे शक्तिशाली हथियारों के निर्माण और अधिग्रहण में कोई गिरावट नहीं देख रहे हैं जिसका उपयोग मात्र हिंसा है।
 
हम अब पहले से कहीं अधिक अन्योन्याश्रित हैं। हम आम चुनौतियों का सामना भी कर रहे हैं जैसे जलवायु परिवर्तन का संकट। हमें दूसरों के हितों को ध्यान में रखना होगा। इस देश में, विश्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले लोकतंत्र में, विभिन्न स्थानों की विभिन्न भाषाएँ और विभिन्न संस्कृतियाँ हैं, पर फिर भी वे उस संघ से संबंधित हैं, जो भारत है। मैं यूरोपीय संघ की भावना का बहुत प्रशंसक हूँ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ऐतिहासिक विरोधियों ने अपने स्थानीय हितों के समक्ष आम हितों को रखने का निश्चय किया।
 
"हमारी शिक्षा प्रणाली को एक निष्पक्ष धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और इसमें प्रेम व सौहार्दता के लाभ के निर्देश शामिल हैं। भारत में अहिंसा की एक पुरानी परम्परा है, जो करुणा के विचारों पर आधारित है। परन्तु वर्तमान भारत में पश्चिम की ओर देखने की प्रबल प्रवृत्ति है जो एक भौतिकवादी दृष्टिकोण की ओर उन्मुख है। आधुनिक शिक्षा को चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य की भारतीय समझ को तर्क के साथ मिलाने की तत्कालिक आवश्यकता है। मात्र भारत में ऐसा करने की क्षमता है। यह एक ऐसी परियोजना है जिसे तुमकुर विश्वविद्यालय और सेरा-जे विहारीय विश्वविद्यालय लाभदायक रूप से एक साथ कर सकते हैं।

"हम तिब्बती अपने आपको चेला अथवा भारतीय गुरु के शिष्य के रूप में देखते हैं। हम जो जानते हैं, वह हमने आपसे सीखा है। पर समय के साथ इनमें से कुछ भारत में उपेक्षित हो गया है और अब चेले प्राचीन भारतीय ज्ञान के कुछ पहलुओं के बारे में अधिक जानते हैं। मैं नियमित रूप से युवा भारतीयों से मनोविज्ञान और दर्शन की प्राचीन धरोहर पर अधिक ध्यान देने का आग्रह करता हूँ, क्योंकि विश्व में शांति चित्त की शांति से प्रारंभ करना होगा। यह ऐसा क्षेत्र है जिसमें भारत उदाहरण से नेतृत्व कर सकता है।"
 
कई युवा छात्र परम पावन से प्रश्न पूछना चाहते थे। एक चीन में बौद्ध धर्म की स्थिति के बारे में जानना चाहता था और उन्होंने उससे कहा कि ऐतिहासिक रूप से चीन बौद्ध देश है। उन्होंने कहा कि विश्व में चीनी जहाँ भी बस गए हैं उन्होंने 'चाइना टाउन' की स्थापना की है, जहाँ पर लगभग लगभग सदैव एक बौद्ध मंदिर है। उन्होंने आगे कहा कि, नागार्जुन के लेखन से परिचित, चीनी नालंदा परम्परा का भी पालन करते हैं। सांस्कृतिक क्रांति के दौरान सभी धर्मों को लेकर व्यापक विनाश हुआ था, पर तब से एक प्रतिलाभ भी हुआ है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि बौद्ध धर्म चीनी संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। शोध से पता चलता है कि अब चीन में ३०० लाख अधिक बौद्ध हैं, उनमें से कई सुशिक्षित हैं।
 
एक अन्य युवा छात्रा ने प्रज्ञा के बारे में पूछा और परम पावन ने उसे बताया कि यह वास्तविकता की सही समझ की क्षमता से संबंधित है। इसमें एक सतही तुलना में गहन स्तरीय ज्ञान की आवश्यकता है जो इस अवलोकन पर आधारित है कि दृश्य यथार्थ को प्रतिबिंबित नहीं करता।
जब श्रोताओं में से एक ने जीवन के उद्देश्य के बारे में पूछा तो परम पावन ने उत्तर दिया कि यह सुखी और आनन्द से भरा होना है। एक और जानना चाहता था कि क्या उन्हें मृत्यु का भय है, और परम पावन ने उन्हें बताया कि मृत्यु जीवन का एक अंग है। एक बौद्ध के रूप में वह इस जीवन के बाद आगामी जीवन के संदर्भ में सोचते हैं और इसलिए एक अर्थपूर्ण जीवन जीने का महत्व है, जो उनकी प्रिय प्रार्थना का संदर्भ है:

जब तक हो अंतरिक्ष स्थित
और जब तक सत्व हों
तब तक मैं भी बना रहूँ
संसार के दुख दूर करने के लिए।"

तुमकुर कुलसचिव ने एक बार पुनः विश्वविद्यालय में आने और संबोधन के लिए परम पावन के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए बैठक का समापन किया।
 
विश्राम गृह में मध्याह्न का भोजन प्रदान किया गया, जो कि मदन मोहन मालवीय की समृति में है, जो गांधी के समकालीन और साथी और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक थे। परम पावन बेंगलूरु लौट आए। कल प्रातः वे दिल्ली की यात्रा करेंगे।

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