परम पावन 14 वें दलाई लामा
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सैन डिएगो चिड़ियाघर की यात्रा और भारतीयों और तिब्बतियों के साथ बैठकें १८/जून/२०१७

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सैन डिएगो, सीए, संयुक्त राज्य अमेरिका - सैन डिएगो मुश्किल से करवटें ले रहा था जब परम पावन दलाई लामा प्रातः सैन डिएगो चिड़ियाघर का दौरा करने के लिए निकल पड़े। द्वार पर उनका स्वागत महापौर केविन फाल्कननर, उनकी पत्नी और चिड़ियाघर के अध्यक्ष डगलस मेयेर ने किया।
 
प्रारंभ में उन्हें एक लघु वीडियो दिखाया गया जिसमें जानवरों की प्रजातियों और पौधे, जिन पर वे निर्भर होते हैं, के संरक्षण के लिए चिड़ियाघर की महत्वपूर्ण भूमिका स्पष्ट की गई थी।

परम पावन ने विद्युत संचालित एक बग्गी से उद्यान का भ्रमण किया, जिस दौरान उन्होंने विभिन्न पक्षी व जानवर देखे। बड़ी बिल्ली के जानवरों में उन्हें एक मलय बाघ, एक तेंदुआ, शेर और चीता दिखाया गया। उन्होंने देखा कि हाथियों को नहलाया जा रहा था और उन्हें बताया गया कि जब अमरीका में हाथी सेवा निवृत्त होते हैं तो सैन डिएगो अमेरिका के सभी हाथियों का गंतव्य है। चिड़ियाघर कुछ बहुत वृद्ध हाथियों की देख भाल करता है। पक्षियों के बीच उन्होंने कंडोर, एक मोर और हॉर्नबिल, साथ ही फ्लेमिंगो के एक झुंड को देखा। एक पड़ाव में उनके पास एक ऑस्ट्रेलियाई कोआला भालू और एक बाल अजगर लाया गया। अन्य स्थान पर उन्होंने जिराफ और गैंडों को देखा।
 
रिसेप्शन पर लौट कर परम पावन ने चाय पी तथा महापौर, अध्यक्ष, उनके कर्मचारियों और बोर्ड के सदस्यों के साथ चिड़ियाघर के काम के बारे में बात की और चिड़ियाघर के आम जनता के लिए खोले जाने से पूर्व वे अपने होटल लौट गए।
 
मध्याह्न भोजनोपरांत सैन डिएगो भारतीय समुदाय के लगभग २०० सदस्यों के साथ बैठक में, डॉ सुरेश सुब्रमणि ने परम पावन का स्वागत किया और परिचय कराया। तत्पश्चात एक लघु संगीत अंतराल हुआ जिसमें प्रोफेसर कार्तिक शेषाद्रि ने एक संक्षिप्त सितार वादन प्रस्तुत किया।
 
"प्रिय भाइयों और बहनों," परम पावन ने प्रारंभ किया, "आप भारतीय ऐतिहासिक रूप से हमारे गुरु थे, अतः मुझे यहाँ आपके एक समूह के साथ मिलकर बहुत प्रसन्नता हो रही है। चीन, मिस्र और सिंधु घाटी की प्राचीन सभ्यताओं में प्रतीत होता है कि भारतीय सभ्यता ने रचनात्मक विचारकों की सबसे बड़ी संख्या को जन्म दिया है।

"मैं अहिंसा भावना और धर्मनिरपेक्ष बहुलता, जो भारत का प्रतीक है, का बहुत प्रशंसक हूँ। इन परम्पराओं के कारण, अपने पड़ोसियों की तुलना में, भारत अनूठे रूप से स्थिर और सामंजस्यपूर्ण है। जहाँ तक मेरी सोच है, यह एकमात्र ऐसा देश है जहाँ हमारी सभी प्रमुख धार्मिक परम्पराएं प्रेमभाव से साथ-साथ रहती हैं। आडवाणी ने मुझे बताया कि भारत का धर्मनिरपेक्ष सम्मान उन लोगों के लिए भी है, जिनकी कोई आस्था नहीं है, इस ओर संकेत करते हुए कि यद्यपि चारवाकों ने एक उच्छेदवादी दृष्टिकोण अपनाया, पर उनके गुरु आज भी ऋषियों या संतों के रूप में संदर्भित किए जाते हैं। इस तरह का एक व्यापक दृष्टिकोण प्रासंगिक है, जब आज ७ अरब जीवित मनुष्यों में १ अरब लोगों की किसी में आस्था नहीं है।
 
"अहिंसा के संबंध में, यह स्मरणीय है कि सीमांकन, कार्य किस तरह का है उस पर अधिक न होकर प्रेरणा पर है। किसी के प्रति चिंता रखते हुए और उसके कल्याण के लिए कठोर शब्द अहिंसक है, पर किसी को धोखा देने और छल करने के उद्देश्य से मुस्कान और कोमल शब्द हिंसक माने जा सकते हैं।"

परम पावन ने अपनी तीन प्रतिबद्धताओं को रेखांकित किया - आधारभूत मानव मूल्यों को सुख के स्रोत के रूप में बढ़ावा देना, अंतर्धार्मिक समझ को प्रोत्साहित करना और यद्यपि वे सेवानिवृत्त हो चुके हैं और अपना राजनैतिक उत्तरदायित्व उन्होंने तिब्बत के लिए एक निर्वाचित नेतृत्व को सौंप दिया है, तिब्बत के धर्म और संस्कृति इसके साथ प्रकृतिक वातावरण को संरक्षित करना।
 
उन्होंने स्पष्ट किया कि १९५९ में तिब्बती संस्कृति को संरक्षित करने के प्रयास प्रारंभ हो गए थे, जब वह प्रथम बार निर्वासन में आए। परन्तु विशेष रूप से १९७३ के बाद, जब उन्होंने यूरोप की अपनी पहली यात्रा की तो उन्होंने आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ विचारों का व्यापक आदान-प्रदान का प्रारंभ किया। फिर उन्होंने इस बात को समझना प्रारंभ किया कि चित्त और भावनाओं के कार्य का प्राचीन भारतीय ज्ञान मानवता के कल्याण में योगदान दे सकता है।
 
"५८ वर्षों बाद, मैं भारत सरकार का सबसे लंबे समय का स्थायी अतिथि हूँ। मेरा मस्तिष्क भारतीय ज्ञान से परिपूरित है और मेरा शरीर भारतीय चावल, दाल और रोटियों द्वारा पोषित हुआ है। यही कारण है कि मैं कभी-कभी अपने आप को भारत का पुत्र कहता हूँ। मैं इसे अपना कर्तव्य समझता हूँ कि जो स्नेह मुझे प्राप्त हुआ है उसे चुकाऊँ, जिसके लिए मैं नालंदा परम्परा के ज्ञान को साझा करना चाहता हूँ, जो कि तिब्बतियों ने जीवित रखा है।"
 
श्रोताओं में से एक ने स्वीकारा कि अधिकतर धार्मिक परम्पराओं ने अपने इतिहास में किसी न किसी समय हिंसा का आश्रय लिया है, पर बर्मा में जो बौद्ध आतंकवादी के रूप में संदर्भित किया गया है उसके बारे में जान कर वह आश्चर्यचकित था। परम पावन ने सहमति व्यक्त की और उनसे कहा कि उन्होंने सुझाया था कि जब बर्मा में बौद्ध एक दूसरे के प्रति बैर की भावना का अनुभव करें तो रुककर बुद्ध के मुख का स्मरण करें।
 
उन्होंने आगे कहा कि यद्यपि ऐसा सूचित किया गया था कि भिक्षु हिंसा और उत्पीड़न में शामिल थे तो यदि उन्होंने वास्तव में इस तरह का व्यवहार किया हो तो उन्हें अब भिक्षु नहीं माना जा सकता। उन्होंने बल देते हुए कहा कि एक आतंकवादी सिर्फ एक आतंकवादी है और एक धार्मिक लेबल जोड़ना गलत है, बौद्ध आतंकवादी या मुस्लिम आतंकवादी के रूप में संदर्भित करते हुए एक पूरे धर्म की प्रतिष्ठा को खराब करने का प्रयास।
 
उन्होंने एक अन्य प्रश्नकर्ता को समझाया कि वे जिस प्राचीन भारतीय ज्ञान का उल्लेख कर रहे थे वे कंग्यूर और तेंग्यूर के ३०० से अधिक खंडों में शामिल है।

अंत में, एक भारतीय महिला ने समूचे विश्व हेतु अपने को समर्पित करने के लिए परम पावन को धन्यवाद दिया। उसने पूछा कि क्या यह स्वीकार्य होगा यदि वह श्रोताओं में अपने साथियों से परम पावन के कल्याण के लिए गायत्री मंत्र का तीन पाठ समर्पित करने का अनुरोध करे।  
इसके बाद ६०० से अधिक तिब्बतियों को संबोधित करते हुए, जिनमें से अधिकतर स्थानीय हैं परम पावन ने उन्हें बताया:
 
"इस क्षेत्र के इस छोटी सी यात्रा के दौरान, मुझे प्रसन्नता है कि मैं आप में से कुछ के साथ मिल सका जिनका मेरे साथ एक विशेष कार्मिक बंधन है, न कि इस जीवन का बल्कि कई जन्मों का। तिब्बत और निर्वासन में तिब्बतियों ने उल्लेखनीय निष्ठा और समर्पण दिखाया है - मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ।
 
"हम ५८ वर्षों से निर्वासन में हैं, जो एक व्यक्ति के जीवन में एक लंबी अवधि है। तिब्बत में मंदिरों और विहारों को नष्ट कर दिया गया है और कई लोग अपना जीवन खो चुके हैं। शिक्षा के संदर्भ में भोट भाषा और संस्कृति का अध्ययन तिब्बत तक सीमित है। पर फिर भी, हमारी तिब्बती भावना प्रबल है और हम एकजुट हैं - जिसके लिए मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ।
 
"यह आवश्यक है कि हम अपनी भाषा जीवित रखें, मोह के कारण नहीं, परन्तु इसलिए कि बौद्ध दर्शन, विज्ञान और मनोविज्ञान को सटीक रूप से सम्प्रेषित करने का यह सर्वोत्तम साधन है। पिछले ३० वर्षों या उससे अधिक के दौरान हमने विद्वानों और वैज्ञानिकों के साथ चर्चा की है जिनमें से अधिकांश धार्मिक नहीं हैं। यह उनके लिए विश्वास से परे है कि नालंदा परम्परा अंध- विश्वास पर आधारित नहीं है, अपितु बल्कि तर्क और कारण पर आधारित है।

"आप स्वयं को बौद्ध माने अथवा नहीं पर तर्क का अध्ययन उपयोगी है। अतीत में यह मात्र भिक्षुओं का क्षेत्र था, पर इन दिनों आम जनता को भी शामिल होना चाहिए। हरिभद्र ने 'अभिसमयालंकार' में लिखा कि मन्द बुद्धि वाले लोग आस्था पर निर्भर होते हैं, पर जिनकी बुद्धि प्रखर होती है, वे तर्क पर निर्भर होते हैं। यदि हम प्रखर बुद्धि वाले लोगों के मार्ग का अनुसरण करें तो हमारी बौद्ध परम्परा के अस्तित्व की संभावनाएं उज्ज्वल हैं। स्मरण रखें कि बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सलाह दी कि वे उनकी शिक्षाओँ को केवल उनके प्रति सम्मान के कारण स्वीकार न करें, पर केवल जांच तथा परीक्षण के बाद उसे मानें जिस तरह एक स्वर्णकार सोने की परख करता है। नागार्जुन और चंद्रकीर्ति जैसे भारतीय आचार्यों ने हृदय से इस सलाह को ग्रहण किया और उन ग्रंथों में भेद किया, वे जो नेयार्थ हैं और वे जिन्हें नेतार्थ माना जा सकता है।
 
"बौद्ध धर्म २५०० से अधिक वर्षों से जीवित रहा है। यदि हम इसे अगली पीढ़ी को दे सकें हैं तो यह अच्छा होगा और लाभ का एक स्रोत होगा।
 
"कुछ दिन पूर्व मैं जांच के लिए मेयो क्लिनिक गया था और डॉक्टर ने मुझे पूरी तरह से स्वस्थ बताया। उन्होंने बताया कि जो प्रोस्टेट उपचार मैंने पिछले वर्ष लिया था वह सफल रहा है।  
"शांत रहें, एक साथ रहें और एकजुट रहें। ध्यान रखें कि हमारी बौद्ध परम्पराएं व्यापक विश्व में योगदान दे सकती हैं।"

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