थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत - विशुद्ध नील नभ की पृष्ठभूमि में उदित सूर्य की आभा से धौलाधर क्षेत्र की चोटियाँ जगमगा रही थीं जब आज प्रातः लोग परम पावन दलाई लामा निवास स्थल से जुड़े चुगलगखंग के प्रांगण में एकत्रित हुए। पर्वतों पर कई दिनों की वर्षा और बर्फ के बाद कड़कती हुई ठंड थी। इससे पहले परम पावन द्विपक्षीय 'पोषध' समारोह में भाग लेने के लिए मंदिर गए। इस बीच ग्युमे तांत्रिक महाविहार के भिक्षु प्रांगण में सिंहासन के समक्ष शास्त्रार्थ कर रहे थे।
जब ८ बजने के कुछ समय बाद परम पावन मंदिर की सीढ़ियों से नीचे उतरे तो सामने से नमज्ञल विहार के भिक्षुओं ने पीले रंग की टोपियों में और श्रृंग वाद्य बजाते हुए और पीछे एक भिक्षु समारोहीय छत्र लिए उनका अनुरक्षण किया। सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण करने से पूर्व उन्होंने श्रोताओं का अभिनन्दन किया। मंत्राचार्य ने हृदय सूत्र, वंशावली प्रार्थना, प्रवचन के अनुरोध हेतु मंडलार्पण, शरण गमन के छंद और बोधिचित्तोत्पाद के सस्वर पाठ का नेतृत्व किया।
परम पावन ने दिन के प्रवचन की भूमिका बनाते हुए समझाया कि २६०० वर्ष पूर्व भारत में कई अन्य धार्मिक और दार्शनिक परम्पराएँ थीं। वे सभी उनके अपने अनुयायियों के लिए उनके मार्ग में लाभकारी थीं और कई बनी हुई हैं। जहाँ बुद्ध का मत उनसे अलग था वह उनकी वस्तुओं की स्वतंत्र सत्ता का गहन दृष्टिकोण, स्वतंत्र सत्ता के अभाव को लेकर था। उन्होंने समझाया कि दुख का हेतु यह है कि हम सभी व्याकुल करने वाली भावनाओं के प्रभाव में हैं, क्योंकि हम इस विचार को ग्राह्य कर रखते हैं कि वस्तुओं का एक स्वतंत्र अस्तित्व है।
परम पावन ने टिप्पणी की, कि यह भव चक्र के चित्र में स्पष्ट है। बाहरी परिधि में प्रतीत्य समुत्पाद के द्वादशांग हैं जो अज्ञान के साथ प्रारंभ होते हैं। परिणामस्वरूप हम अस्तित्व के छह लोकों में जन्म लेते हैं-श्वेत या कुशल कर्म के परिणामस्वरूप उच्च लोकों में जन्म होता है, जबकि काले या अकुशल कर्म हमें निम्न लोकों की ओर ले जाते हैं, जैसा कि चित्र स्पष्ट करता है। हमारे कार्य तीन विषों तृष्णा, घृणा और अज्ञान के क्लेशों से प्रेरित होते हैं जो कि चक्र के केन्द्र में मुर्गे, सर्प और सुअर से चित्रित किए गए हैं।
उन्होंने कहा, "हम दुःख झेलते हैं क्योंकि हम कर्म निर्मित करते हैं," और हम यह क्लेशों के प्रभाव में करते हैं। उनका मूल इस अज्ञान की धारणा में है कि वस्तुएँ स्वतंत्र रूप से अस्तित्व रखती हैं। वहाँ उस वृक्ष को देखें; ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्वतंत्र रूप से अस्तित्व लिए हुए है। पर यदि हम उसके अंगों, उसके तने, उसकी शाखाओं या उसकी पत्तियों के बीच उसे देखें तो हम वृक्ष को देख नहीं सकते। और फिर भी वे वृक्ष का अंग हैं। आज वैज्ञानिकों का भी यह कहना है कि वस्तुओं का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं होता। बुद्ध ने यथार्थ की देशना दी - वस्तुएँ कैसी हैं।
"परन्तु बुद्ध की नैरात्म्य की व्याख्या कई अन्य परम्पराओं के आचार्यों को मान्य नहीं हुई। तो उनके बीच ऋद्धियों की प्रतिस्पर्धा हुई। आज श्रावस्ती में इस अवसर का स्मरण किया जाता है जब बुद्ध ने उस प्रतिस्पर्धा में अपने विरोधियों को परास्त किया था। तिब्बती परम्परा में इस घटना को जे चोंखापा, महान प्रार्थना उत्सव के अंग के रूप में लेकर आए। इसकी गणना उनके जीवन के चार महान कर्मों में से एक के रूप में होती है।
"तिब्बत में हमारे पास बौद्ध शिक्षाओं का पहला प्रसार था, जिसका ह्रास हुआ। दूसरा प्रसार रिनछेन संगपो के साथ प्रारंभ हुआ। इस समय अतीश को तिब्बत आमंत्रित किया गया और उन्होंने वहाँ 'बोधिपथप्रदीप' की रचना की। उन्होंने कदमपा परम्परा की स्थापना की, जिसकी तीन वंशावलियाँ थीं। इनमें से शास्त्रीय वंशावली ने छः ग्रंथों पर ध्यान दिया-जातक कथाएँ, धम्मपद का तिब्बती सममक्ष उदानवर्ग। साथ ही शांतिदेव का 'बोधिसत्चर्यावतार' और 'शिक्षा समुच्चय', असंग की 'बोधिसत्व भूमि' और मैत्रेय की 'सूत्रालंकार' भी सम्मिलित थे। जातक कथाएँ बुद्ध की बोधिसत्व के रूप में उनके विगत जीवन के अनुकरणीय कर्मों का स्मरण कराती हैं।"
आज परम पावन ने चौंतीस कहानियों के संग्रह में से अंतिम कहानी पढ़ी। यह उस काल से संबंधित था जब बोधिसत्व का जन्म एक कठफोड़वे के रूप में हुआ था। एक दिन जब वह उड़ रहा था तो उसने एक बूढ़े शेर को धूल से भरे और व्याकुल अवस्था में देखा और द्रवित होकर उसने पूछा कि उसकी उस अवस्था का कारण क्या था। शेर ने उसे बताया कि उसके गले में हड्डी का एक टुकड़ा अटक गया था जिसे वह निकाल नहीं पा रहा था। वह उसे बहुत बेचैन कर रहा था और उसने पक्षी से अनुरोध किया कि क्या वह उसकी कोई सहायता कर सकता था। कठफोड़वा ने ध्यान से सोचा और शेर से अपना मुँह खोलने के लिए कहा। उसने जबड़े के बीच एक छड़ी रखी जिससे वह उसे बंद न कर पाए और खुले मुंह के अंदर उड़ा। हड्डी को खींचते हुए वह उसे निकालने में सफल हुआ और जैसे ही वह बाहर उड़ा उसने छड़ी भी हटा दी। इस तरह कठफोड़वा के रूप में बोधिसत्व ने शेर को अत्यधिक पीड़ा से छुटकारा दिलाया।
कुछ समय बाद, स्थितियां ऐसी हुईं कि कठफोड़वा खाने के लिए पर्याप्त भोजन जुटा नहीं पाया और भूख से मरणासन्न था। उसका सामना उसी शेर से हुआ जो ताज़ा शिकार खा रहा था और इस आशा में कि उसे कुछ हिस्सा मिलेगा वह ऊपर नीचे उड़ा। जब उसका कोई प्रभाव न हुआ तो उसने शेर से उससे अनुरोध किया कि वह उसे भी कुछ खाने दे। शेर गरजा और इनकार कर दिया, जिससे पक्षी ने यह सीखा कि ऐसे प्राणी हैं जो सहायता तो ले लेते हैं परन्तु केवल बदले में कुछ देते नहीं।
पाठ के अंत तक पहुंचने पर, परम पावन ने परम्परा का अनुपालन करते हुए प्रारंभ में लौटकर संग्रह की पहली कथा से कुछ पढ़ा। उन्होंने उल्लेख किया कि लेखक आर्यशूर एक कुशल अबौद्ध तार्किक थे जिन्होंने नालंदा के भिक्षुओं को चुनौती दी। इस चिंता से कि वह उनको पराजित कर सकता है, उन्होंने नागार्जुन को सहायतार्थ बुलाया। उन्होंने अपने स्थान पर अपने शिष्य आर्यदेव को नियुक्त किया। आर्यशूर पराजित हुआ और आर्यदेव का शिष्य बन गया।
इसके बाद, परम पावन ने घोषणा की कि बुद्ध के प्रति उनके विभिन्न स्तुतियों के अतिरिक्त, उन्होंने नागार्जुन का एक लघु ग्रंथ देखा है जो 'वज्रचित्त स्तव' नाम से जाना जाता है। जनमानस को उसकी एक मुद्रित प्रतिलिपि वितरित की गई थी और उन्होंने उसे पढ़ा। संदर्भ देते हुए उन्होंने उल्लेख किया कि कुछ धार्मिक अभ्यास में शारीरिक क्रियाएँ शामिल हैं जैसे कि प्रक्षालन। कुछ, वेदों की तरह, ध्वनि की प्रभावकारिता पर केंद्रित हैं। परन्तु बुद्ध शाक्यमुनि ने चित्त से अभ्यास करने का तरीका सिखाया।
"इस लघु ग्रंथ में नागार्जुन चित्त के प्रति ही श्रद्धा अर्पित करते हैं, क्योंकि यह चित्त ही है जो अवधारणाओं के जाल को दूर कर सकता है, वह अज्ञान जो कर्म निर्मित करने हेतु और दुःख के लिए क्लेशों की ओर ले जाता है। चित्त के मूल में संसार है। चित्त से अलग कोई पीड़ा अथवा आनंद नहीं है। परोपकारी उद्देश्य के आधार पर अभ्यास लाभदायक है। चित्त की वस्तुओं का सांवृतिक अस्तित्व है। वे ज्ञापित होने आधार पर अस्तित्व रखते हैं।
"संसार अवधारणाओं में है; निर्वाण अवधारणाओं की अनुपस्थिति है। अवधारणाओं और क्लेशों से दूर रहें और आप को निर्वाण को प्राप्त होगा। सूक्ष्मतम चित्त की प्रभास्वरता का कोई आदि या अंत नहीं है। इस उत्कृष्ट चित्त से बुद्धत्व जन्म लेता है।"
परम पावन ने बहुश्रुत श्लोक का उद्धरण देते हुए 'वज्रचित्त स्तव' का अपना पाठ पूरा किया:
कोई भी अकुशल कर्म न करें,
पुण्य की सम्पदा विकसित करें,
अपने इस चित्त को पूरी तरह वश में करें,
यही बुद्धों की देशना है।
आज, १२ मार्च को तिब्बती महिला क्रांति दिवस की ५८वीं वर्षगांठ भी थी, जब तिब्बती महिलाओं ने चीनी कब्जे का विरोध किया था। इस वर्ष केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) ने इस अवसर को प्रथम तिब्बती महिला दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया था।
चार गेशे-मा श्रमणेरियों ने पथक्रम की समापन प्रार्थना से प्रारंभिक प्रार्थनाओं का सस्वर पाठ किया। उनके बाद टीपा की कलाकारों ने 'तिब्बती महिलाओं का क्रांति दिवस' गीत गाया।
सिक्योंग डॉ लोबसंग सांगे ने महिलाओं के सशक्तिकरण और सीटीए की एक नई मानसिकता की आवश्यकता की स्वीकृति के विषय पर बात की, ताकि इसका होना सुनिश्चित हो सके। उसके बाद ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस के अतिथि महिला वक्ताओं ने तिब्बती महिलाओं के सम्मान में वक्तव्य दिया, विशेषकर उन लोगों के विषय में जो क्रांति में सम्मिलित हुईं थीं और तिब्बत मुद्दे के लिए बलिदान दिया था।
अपनी टिप्पणी में परम पावन ने स्मरण किया कि चीनी दस्तावेज़ बताते हैं कि ७वीं, ८वीं और ९वीं शताब्दी में तीन महान साम्राज्य फल फूल रहे थे तिब्बती, मंगोलियाई और चीनी। आज चीनी तिब्बतियों को अलगाववादी कहते हैं, पर उन्होंने कहा कि यदि उनके पास वास्तविक स्वायत्तता हो तो वे पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के साथ रह सकते हैं। उन्होंने कहा कि तिब्बती संघर्ष न्यायोचित और तर्कसंगत था और उसे विश्व भर का समर्थन प्राप्त था।
परम पावन ने उल्लेख किया कि जहाँ बुद्ध ने पुरुषों और महिलाओं को समान माना था और दोनों को पूर्ण प्रव्रज्या प्रदान की थी, भिक्षुणियों की प्रव्रज्या को तिब्बत में नहीं लाया गया था। उन्होंने टिप्पणी की कि जहाँ ऐतिहासिक रूप से शारीरिक ताकत के आधार पर पुरुषों को नेतृत्व का समर्थन मिला था, बौद्ध, महिलाओं को विशेष सम्मान देते हैं जब वे 'सभी मातृ सत्वों' के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं। उन्होंने आगे कहा कि महायान और वज्रयान परम्पराओं में महिलाओं को हेय दृष्टि से न देखने के विशिष्ट कठोर निर्देश हैं।
"हमने तिब्बती समाज में बहुत सफलता प्राप्त की है - पर हम और सुधार कर सकते हैं।"
उन्होंने वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में की गई पुष्टि की भी बात की कि मानव प्रकृति अनिवार्य रूप से करुणाशील है, जो आशा का एक स्रोत है।
"शांति संघर्ष के माध्यम से नहीं लायी जाती, परन्तु करुणा द्वारा अपने अंदर चित्त की शांति निर्मित कर। हम सभी को करुणा की आवश्यकता है और महिलाएँ इसको लाने में एक प्रमुख भूमिका निभा सकती हैं। दया और करुणा की मेरी अपनी पहली शिक्षिका मेरी मां थीं।
"तिब्बती महिला क्रांति दिवस की ५८वीं वर्षगांठ और प्रथम तिब्बती महिला दिवस के इस अवसर पर मैं महिलाओं से आग्रह करता हूं कि वे नेतृत्व में अधिक सक्रिय और साहसी हों।"
कल और आगामी दिन, परम पावन कमलशील के 'भावनाक्रम' के मध्यम खंड और ज्ञलसे थोगमे संगपो के 'बोधिसत्व के ३७ अभ्यास' पर प्रवचन देंगे।