सिद्धपुर, जिला कांगड़ा, हि. प्र., भारत - आज प्रातः बर्फ से ढँकी हुई पहाड़ियों से शीत हवा के चलते मेघाच्छन्न कांगड़ा घाटी में ठंडी वर्षा हुई। परन्तु नोर्बुलिंगा संस्थान के मुख्य मंदिर के अंदर सब कुछ प्रकाश व रंगों से उद्दीप्त था, जबकि अतिथियों व कर्मचारियों के मुख परम पावन दलाई लामा के आगमन की संभावना को लेकर मुस्कान से खिले हुए थे। संस्थान के उद्घाटन की २१वीं वर्षगांठ को चिह्नित करने के लिए चौदह दलाई लामा और उनके पूर्ववर्तियों के जीवन को चित्रित करते हुए २५ थंगका का एक पूर्ण सेट परम पावन को भेंट किया जा रहा था।
१५ वर्षों से चली आ रही नोर्बुलिंगा की इस परियोजना का प्रारंभ, प्रथम थंगका चित्रकला के शिक्षक तेनपा छोफेल ने किया था। सेट में दलाई लामाओं के जीवन को दर्शाते हुए थंगका चित्र शामिल हैं। इनमें से एक पहले तेरहों के लिए; तीन परम पावन चौदहवें दलाई लामा और ९ अन्य हैं, जो वंशावली के पिछले सदस्यों को दर्शाते हैं, जैसे डोम-तोन-ज्ञलवे जुंगने और तिब्बत के धार्मिक राजा।
चित्रों का सेट मौलिक और अद्वितीय है। इसमें किसी सम्प्रति नमूने का पालन नहीं किया गया। तेनपा छोफेल ने नमज्ञल विहार के पूर्व उपाध्याय ओर ज्ञुतो तांत्रिक महाविहार के पदस्थ उपाध्याय जदो रिनपोछे के साथ विचार-विमर्श कर चित्रों की योजना और डिजाइन तैयार करने लगे। उन्होंने इन पर चर्चा की कि दलाई लामा के जीवन से किन दृश्यों को शामिल कर उन्हें किस प्रकार चित्रित किया जाए। तेनपा छोफेल के देहावसान के बाद कलात्मक पर्यवेक्षण का उत्तरदायित्व प्रमुख छात्रों में से एक, तेनज़िन नोरबू ने लिया।
प्रत्येक चित्र में एक केंद्रीय आकृति है, दलाई लामा या उनके पूर्ववर्तियों में से एक, कोनों में उनके ध्यान देवता और संरक्षक हैं। मध्य का स्थान विशिष्ट जीवन की घटनाओं के अद्भुत विवरण के चित्रण के साथ भरा हुआ है।
जब परम पावन का आगमन हुआ तो चित्रों को देखने के लिए उनका अनुरक्षण मंदिर के चारों ओर दक्षिण दिशा से हुआ, प्रत्येक चित्र को ऊपर से प्रदीप्त किया गया था। उन्हें इस तरह से टांगा गया था कि वर्तमान के तीन चित्र, जिनमें उनका जीवन चित्रित है, से प्रारंभ होकर विगत दलाई लामाओं और उनके पहले की भी आकृतियां थीं। परम पावन प्रसन्न प्रतीत हुए और कई बार उन्होंने उन दृश्यों की ओर संकेत किया जिसने उन्हें विनोद की भावना से भर दिया था और वे हँसी से भर उठे।
मंच पर पहुँचकर अतिथियों के बीच उन्होंने कई पुराने मित्रों का अभिनन्दन किया, बुद्ध शाक्यमुनि की विशाल मूर्ति के समक्ष सम्मान व्यक्त कर अपना आसन ग्रहण किया। जब चाय और मीठे चावल दिए जा रहे थे तो प्रार्थना का पाठ हुआ। नोर्बुलिंगा की २१वीं वर्षगांठ पर अतिथियों व कर्मचारियों का समान रूप से स्वागत किया गया। संस्थान के संस्थापक और पूर्व निदेशक, कसूर केलसंग येशे और किम येशे, साथ ही कर्मचारियों के वरिष्ठ सदस्यों ने परम पावन के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया जबकि उनकी दीर्घायु हेतु एक विस्तृत प्रार्थना का सस्वर पाठ किया गया।
सिक्योंग डॉ लोबसंग संगे ने ११ खंडों के तिब्बती संस्कृति के एक विश्वकोश का विमोचन किया, जो कि संस्थान के साहित्य अनुसंधान विभाग द्वारा किए गए कई वर्षों के कार्य का परिणाम है। अतिथियों के बीच कई लोगों को पुस्तकों के सेट दिए गए। नोर्बुलिंगा के प्रबंध निदेशक देछेन नमज्ञल माजा ने संस्थान की हाल की उपलब्धियों और भविष्य की आकांक्षाओं की रूपरेखा पर वार्षिक रिपोर्ट पढ़ी। उन्होंने सूचित किया कि जिस समय से संस्थान के मूल प्रस्ताव को १९८३ में परम पावन द्वारा मान्यता और स्वीकृति प्राप्त हुई थी, कला और उच्च शिक्षा से संबंधित तिब्बती संस्कृति को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ किया गया है। साथ ही संस्थान ने कर्मचारियों के स्वास्थ्य और उनके बच्चों की शिक्षा की ओर भी प्रयास किया है।
तत्पश्चात कृतज्ञता अभिव्यक्ति की श्रृखंला प्रारंभ हुई, श्रद्धेय समदोंग रिनपोछे को, जो निदेशक मंडल में २० से अधिक वर्षों तक रहे हैं; संस्थापक और पूर्व निदेशक केलसंग और किम येशे; कर्मचारी सदस्य जिन्होंने २० वर्षों तक संस्थान की सेवा की है और वे जो १० वर्षों से सेवारत हैं। अंत में अकादमी ऑफ टिब्बटेन कल्चर नोर्बुलिंगा कॉलेज ऑफ हायर एजुकेशन के छटवें समूह के स्नातकों को प्रमाण पत्र दिए गए।
अपने वक्तव्य के प्रारंभ में पूर्व निदेशक केलसंग येशे ने परम पावन दलाई लामा के प्रति श्रद्धा व्यक्त की और उन्हें तिब्बती लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत घोषित किया। उन्होंने कहा कि उनके कार्यों से तिब्बती संस्कृति ने विश्व भर में पहचान प्राप्त किया है। उन्होंने परम पावन को एक बार पुनः नोर्बुलिंगा आने के लिए धन्यवाद किया। तिब्बती भाषा, धर्म और संस्कृति को तिब्बत के हृदय के रूप में प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि नोर्बुलिंगा में वे जो कुछ कर रहे थे वह इसके ह्रास को रोकने को लेकर एक छोटा योगदान था। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि संस्थान का मानना है कि जो उनके समुदाय से जुड़े हैं उनकी देखभाल करना उऩका कर्तव्य है।
दलाई लामा के चित्रों के सेट के बारे में उन्होंने कहा कि शिल्प कौशल और सामग्रियों के प्रयोग के संबंध में वे यथासंभव उत्कृष्ट थे। उन्होंने उन सभी के प्रति धन्यवाद व्यक्त किया जिन्होंने इस परियोजना को सफल बनाने में योगदान दिया था। उन्होंने २५ चित्रों को इस इच्छा के साथ समर्पित किया कि परम पावन दीर्घायु हों और सत्वों की सहायता व मार्गदर्शन करते रहें। अंत में, उन्होंने सीटीए से अपील की कि तिब्बत के मुद्दे के संबंध में अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखें।
परम पावन ने विगत २५ वर्षों में तिब्बती संस्कृति को बनाए रखने के लिए नोर्बुलिंगा संस्थान ने जो अच्छा कार्य किया है उसकी सराहना करते हुए अपना संबोधन प्रारंभ किया। उन्होंने इस प्रयास में केलसंग और किम येशे द्वारा किए गए बहुमूल्य योगदान का उल्लेख किया।
"जब से हम निर्वासन में आए," उन्होंने कहा, "तिब्बतियों ने एक अनूठा शरणार्थी समुदाय विकसित किया है। हमने न केवल अपनी संस्कृति को संरक्षित रखा है, पर हमने इसे विश्व के कल्याण के लिए बड़े पैमाने पर योगदान करने के उपाय खोजे हैं। इस में नोर्बुलिंगा संस्थान की एक भूमिका रही है। प्रारंभ में जो कई लोग इसका एक अंग थे, उदाहरण के लिए थंगका चित्रकला, मूर्तिकला और लकड़ी-नक्काशी वाले शिक्षक अब जीवित नहीं हैं। वे अब मात्र हमारी स्मृतियाँ हैं। यह हमें स्मरण कराता है कि सब कुछ अनित्य है और फिर भी तिब्बती संस्कृति सैकड़ों वर्षों से जीवित है।
"८वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म भारत से तिब्बत में नालंदा के दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र के प्रवीण आचार्य शांतरक्षित द्वारा लाया गया। यदि परम्परा को बनाए रखने में कठिनाइयों का सामना करना पड़े तो उन्होंने तिब्बती सम्राट को अपने छात्र कमलशील पर निर्भर होने की सलाह दी। जब हम आज इन विद्वानों के लेखन को पढ़ते हैं तो हम उनकी महान क्षमता को सराह सकते हैं।
"हमारे इतिहास में उतार-चढ़ाव हुए हैं, ऐसे समय जब लोग पूरी तरह से तिब्बत की तुलना में अपनी परम्परा या क्षेत्र के बारे में चिंतित थे। पर जिस बौद्ध परम्परा का परिचय शांतरक्षित ने हमें दिया उसे हमने संरक्षित रखा है और वे उन मुख्य चीजों में से एक हैं जिन्होंने हमें जोड़ कर रखा है। शांतरक्षित नालंदा परंपरा से संबंधित थे और नागार्जुन के अनुयायी थे। मैंने नालंदा के सत्रह पंडितों पर स्तुति की रचना की - जिसमें नागार्जुन और शांतरक्षित दोनों की उनके श्रेष्ठ समझ और विद्वत्ता की स्तुति शामिल है। उन्होंने दुःख के कारणों का पता लगाया कि अपनी भावनाओं से निपटने के लिए तर्क और कारणों के प्रयोग से चित्त के प्रशिक्षण और अनुशासन से उन पर काबू पाया जा सकता है।
"यहां पर नोर्बुलिंगा में लोग हमारी संस्कृति को संरक्षित करने में योगदान दे रहे हैं। जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ, लोग मुद्दों पर कार्य करते हैं, वे चले जाते हैं, परन्तु युवा पीढ़ी उस कार्य को जारी रखती है। आपने जो किया है मैं उसके लिए आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ और आपसे इसे जारी रखने का अनुरोध करता हूँ।"
परम पावन ने ५८ वर्ष पूर्व मार्च १९५९ में तिब्बतियों ने जिस उथल-पुथल का सामना किया था उसकी चर्चा की। जब परिस्थिति बिगड़ गई तो यह निश्चय किया गया कि पलायन की आवश्यकता थी। उन्होंने कहा कि जब उन्होंने ऐसा किया तो केवल इस चिंता के अतिरिक्त कि क्या वे अगले दिन जीवित रहेंगे उनके पास कोई लंबी अवधि की योजना नहीं थी। समय के अनुसार वे भारत पहुँचे और हज़ारों तिब्बतियों ने उनका अनुसरण किया। एक बिलकुल अलग जलवायु में मुख्य चुनौती यह थी कि लोगों को जीवित रखने में किस तरह सहायता की जाए।
इसके बाद उन्होंने बच्चों के लिए शैक्षिक सुविधाओं को प्रदान करने हेतु कदम उठाए। भारतीय प्रधान मंत्री नेहरू बहुत दयालु थे और भारत सरकार ने स्कूलों की स्थापना में सहायता की। उन्होंने कहीं और भी भिक्षुओं को एकत्रित होने और अपना अध्ययन जारी रखने का अनुरोध किया।
परम पावन ने कहा कि निर्वासन में होते हुए तिब्बतियों को विश्व के अन्य लोगों के साथ व्यवहार करने का अवसर प्राप्त हुआ था। विदेशों में यात्रा के दौरान उन्होंने देखा कि जहाँ कुछ स्थानों पर भौतिक विकास उन्नत था, पर वह सदा आंतरिक विकास से मेल नहीं खाता था। चित्त की शांति का अभाव था। यही वह स्थान है जहाँ तिब्बतियों के पास साझा करने के लिए कुछ है। बौद्ध धर्म को चित्त के विज्ञान के रूप में समझा जा सकता है, चित्त की कार्यव्यवस्था जिसमें हमारी भावनाओं से निपटने की समझ भी शामिल है।
तिब्बत में संरक्षित नालंदा परम्परा का एक महत्वपूर्ण पक्ष इसके तर्क और कारण का उपयोग है। यही है जिसने वैज्ञानिकों के साथ बातचीत के लिए आधार प्रदान किया है। परम पावन ने समझाया कि संस्कृति को संरक्षित करने में यह भी शामिल है कि यह कैसे विकसित हो सकता है, इसलिए आज महाविहारों में प्रयोगशालाएँ और विज्ञान के अध्ययन भी शामिल हैं। कई विहारीय संस्थान जिनका संबंध मात्र अनुष्ठानों के साथ था, अब अध्ययन कार्यक्रम प्रदान करते हैं। भिक्षुणी विहारों में भी अध्ययन के लिए दिए गए प्रोत्साहन के परिणामस्वरूप योग्यता प्राप्त भिक्षुणियों को गेशे-मा की उपाधि प्राप्त हुई है।
उन्होंने पुष्टि की कि कठिनाइयों के बावजूद तिब्बतियों ने आशा नहीं खोई है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि दूसरों से बौद्ध धर्म में परिवर्तन करने से कहीं अधिक उनकी चिंता यह है कि वह विश्व में अन्य लोगों की किस तरह सहायता कर सकते हैं। उन्होंने समझाया कि कंग्यूर और तेंग्यूर के ३०० खंड, जो अधिकांश रूप से संस्कृत से अनूदित बौद्ध साहित्य हैं, को विज्ञान, दर्शन और धर्म में वर्गीकृत किया जा सकता है। जहाँ धार्मिक सामग्री केवल बौद्धों से संबंधित है पर जो विज्ञान और दर्शन कहता है, वह उस किसी के लिए भी उपयोग और रुचिकर हो सकते हैं जो इसका परीक्षण करने के लिए तैयार हैं। परम पावन ने दोहराया कि तिब्बती भाषा इस समझ को व्यक्त करने का सबसे सटीक माध्यम है।
"यद्यपि हम निर्वासन में हैं, हम अपनी संस्कृति को जीवित रखने में सक्षम हुए हैं, इसमें भाग लेते हुए जो एक गर्व का विषय है। मैं अापसे इसे बनाए रखने का आग्रह करता हूँ। इस की तुलना उन सभी देशों से करें, जो अपने संसाधनों को शस्त्रों के विकास के लिए खर्च कर देते हैं। हम सभी सत्वों के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं, पर हमें जो करने की आवश्यकता है वह उनकी सहायतार्थ व्यावहारिक कदम उठाना है। हमें अपने साथी मनुष्यों की सेवा करने की आवश्यकता है। बस, धन्यवाद, टाशी देलेग।”
अवसर का समापन धर्मोत्कर्ष के लिए प्रार्थना के सस्वर पाठ से हुआ। परम पावन मंदिर से अपने निवास स्थल के लिए रवाना हुए, जबकि अन्य अतिथियों को शानदार मध्याह्न भोजन कराया गया।