नई दिल्ली, भारत - कल धर्मशाला से दिल्ली की यात्रा के उपरांत, परम पावन दलाई लामा आज विद्यालोके के अतिथि थे, एक पहल, जिसके नाम का संबंध ज्ञान के प्रकाश से है, प्राचीन भारतीय परम्परा को पुनर्प्राणित करने पर केन्द्रित है। उनके आगमन पर विद्यालोक के संरक्षक अनलजीत सिंह, उनकी पत्नी और पुत्र वीर ने अपने पारिवारिक आवास में उनका स्वागत किया, और बगीचे में एक गरम शामियाने के नीचे बने मंच पर उनके आसन तक अनुरक्षण किया। मार्ग जो गेंदों के पुष्पों से सीमांतित था, गुलाब की पंखुड़ियाँ से आच्छादित थीं। इस अवसर पर अपने परिचय में, वीर सिंह ने घोषित किया कि समागम का उद्देश्य शांति की सदी के निर्माण की आशा में भारतीय ज्ञान को पुनर्प्राणित करने में एक भूमिका निभाना था।
एक प्रख्यात भारतीय, शाक्यमुनि बुद्ध से प्रेरणा लेकर विद्यालोक ने परम पावन से नागार्जुन के 'सुह्ललेख' और १७ नालंदा आचार्यों की स्तुति, जिनकी रचना उन्होंने स्वयं की थी, पर प्रवचन देने का अनुरोध किया था। बांसुरी की संगत पर 'हृदय सूत्र' के संस्कृत सस्वर पाठ के पश्चात, परम पावन ने बोलना प्रारंभ किया।
"भाइयों और बहनों, मैं इस सभा को मात्र बुद्धधर्म की शिक्षा के बारे में होने के रूप में नहीं देखता, मेरी आशा है कि यह पिछली सदी की तुलना में २१वीं सदी को एक अधिक सुखी, अधिक शांतिपूर्ण शताब्दी होने को सुनिश्चित करेगा। यही हमारा मुख्य उद्देश्य है।"
जारी रखने से पूर्व उन्हें पारम्परिक भारतीय उपचार के आठ समर्पण प्रस्तुत किए गए, प्रक्षालन के लिए जल, पीने के लिए जल, पुष्प, धूप, ज्योति इत्यादि।
"२०वीं शताब्दी में मनुष्यों को विचारधारा और राष्ट्रवाद के नाम पर हुए व्यापक हत्या के कारण अत्यधिक दुःख का सामना करना पड़ा," परम पावन ने आगे कहा, परन्तु जहाँ शताब्दी के प्रारंभिक भाग में किसी राष्ट्र द्वारा युद्ध घोषित किए जाने पर लोग बिना किसी हिचकिचाहट शामिल हो जाते थे, पर वियतनाम युद्ध के अंत और वियतनाम युद्ध के दौरान तक लोगों ने पूछना प्रारंभ कर दिया कि 'इतने मानव जीवन का बलिदान क्यों?' उसके बजाय वे शांति के लिए तरसने लगे। शताब्दी के अंत में यूरोप के देश के लोगों ने जो 'हम' और 'उन' के विभाजन से तंग आ चुके थे एक अधिक परिपक्व तरीके से एक साथ काम करने में सक्षम होने के लिए यूरोपीय संघ बनाया।
"मेरे भौतिकी विज्ञान के शिक्षकों में से एक कार्ल फ्रेडरिक वॉन वीज़ाकर, जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा था, ने मुझे बताया कि कैसे उनके बाल्यकाल में फ्रेंच और जर्मन एक दूसरे को मात्र एक दुश्मन के रूप में देखते थे। वह सब कुछ बदल गया है, जो आशा का स्रोत है।"
परम पावन ने ३० वर्षों से भी अधिक समय से उनके वैज्ञानिकों के साथ हुई सार्थक विचार विमर्श की बात की। उनमें से कुछ ने पाया कि मानव प्रकृति प्रमुखतया करुणाशील है। उन्होंने दिखाया है कि निरंतर भय, क्रोध और घृणा प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल कर देती है, जबकि दया और करुणा इसे सशक्त करती है। परम पावन ने टिप्पणी की कि जब हम दूसरे व्यक्ति का अभिनन्दन एक मुस्कान के साथ करते हैं, तो वह हमें अधिक हर्ष प्रदान करता है। दूसरी ओर औपचारिकता हमें असहज बनाती है। बच्चों के पास, उन्होंने कहा, कि औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं है, वे बस उन की सराहना करते हैं जो उनके साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हैं।
उन्होंने कहा कि प्राकृतिक आपदाओं के अतिरिक्त जो जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप अधिक हो रही हैं, हम कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं जिनका निर्माण हमने किया है। यह सभी ७ अरब मनुष्यों के लिए एक चुनौती है, परन्तु लगभग २८ साल की आयु में वे अनुभव करते हैं कि समय कम है। ठोस कार्रवाई की आवश्यकता है और भारत अपनी समृद्ध आध्यात्मिक विरासत के साथ एक विशेष भूमिका निभा सकता है। उन्होंने आंतरिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने की बात की और कहा कि यद्यपि इन्हें प्रायः धर्म से जोड़ा जाता है, पर यदि आज उनके सार्वभौमिक आकर्षण की आवश्यकता है तो वहाँ एक और अधिक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
परम पावन ने स्वीकार किया कि पश्चिम में भी ऐसे लोग हैं जो 'धर्मनिरपेक्ष' को धर्म के विरोध के संकेत के रूप में देखते रहे हैं, पर उन्होंने स्पष्ट किया कि वे सोचते हैं कि फ्रेंच और बोल्शेविक क्रांतियों के दौरान उनका लक्ष्य वास्तविक धर्म की शिक्षा देने के बजाय धार्मिक संस्थाओं और उनके जनसंख्या का फायदा उठाने की प्रवृत्ति पर था। इस कारण वह कभी कभी धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को सार्वभौमिक मूल्यों के रूप में संदर्भित करते हैं, पर उन्होंने भारत के पारम्परिक धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रशंसा व्यक्त की जो सभी धर्मों का सम्मान करता है और उनके मूल्यों का भी जिनकी कोई आस्था नहीं है।
"यही भारत की असाधारण अंतर्धार्मिक सद्भाव की परम्परा का आधार है। न केवल स्वदेशी परम्पराओं जैसे सांख्य, वेदांत, जैन, बौद्ध धर्म और सिख धर्म, परन्तु अन्य स्थानों की भी परम्पराएँ, पारसी, यहूदी, ईसाई और इस्लाम, यहाँ एक साथ सद्भाव में रहते हैं। अतीत में विभिन्न धर्मों और मार्गों के लोग परस्पर एक दूसरे से सीखते थे जैसा कि हम नालंदा परम्परा में देख सकते हैं। इस तरह का धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण रखते हुए हमें सार्वभौमिक मूल्यों का विकास करने की आवश्यकता है, न कि प्रार्थना या अनुष्ठान के माध्यम से, अपितु शिक्षा के माध्यम से जो आम अनुभव, सामान्य ज्ञान और वैज्ञानिक निष्कर्षों पर आधारित हो।
मैं सदैव भारतीयों को अपने गुरु के रूप में घोषित करता हूँ क्योंकि हमारा सभी ज्ञान नालंदा-ज्ञान से आया है जो कि अत्यंत उपयोगी है जब विनाशकारी भावनाओं को रूपांतरित करने की बात आती है, अतः जो आज भी प्रासंगिक बनी हुई है। परन्तु, मैं अपने आधुनिक भारतीय मित्रों को छेड़ता हूँ कि वे अत्यंत पाश्चात्य और भौतिकवादी बन गए हैं। यहाँ तक कि धार्मिक नेता भी अध्ययन के बजाय अनुष्ठान पर ज़ोर देते जान पड़ते हैं। समय आ गया है कि विनाशकारी भावनाओं से निपटने और आधारभूत आंतरिक मूल्यों को बढ़ावा देने के संदर्भ में प्राचीन भारतीय विचार पर अधिक ध्यान दिया जाए।
"एक नैतिक संकट और मानसिक व्याकुलता के समक्ष हमें एक भावनात्मक स्वच्छता की अधिक आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह हम अपनी शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए शारीरिक स्वच्छता पर ध्यान देते हैं। मैं युवा भारतीयों से अपील करता हूँ कि वे एक धर्मनिरपेक्ष बिंदु से प्राचीन भारत की प्रज्ञा और मूल्यों की ओर अधिक ध्यान दें। इस देश में एक अधिक शांतिपूर्ण, ईमानदार और सच्चे समाज के निर्माण के लिए आधुनिक वैज्ञानिक समझ, तकनीकी विकास और प्राचीन भारतीय ज्ञान को जोड़ने का एक महान अवसर है।"
परम पावन ने तीन प्रकार के धर्मों (वस्तुओं) - स्पष्ट वस्तु, किंचित गुह्य वस्तु और अत्यंत गुह्य वस्तु को समझने के लिए तर्क और कारण के उपयोग के महत्व का उल्लेख किया। अत्यंत गुह्य वस्तु को समझने के लिए हमें विश्वसनीय लोगों के अनुभव पर निर्भर होने की आवश्यकता है। किंचित गुह्य वस्तु को समझने के लिए, हमें तर्क और निष्कर्ष पर निर्भर होना पड़ता है। जो स्पष्ट धर्म हैं उन्हें समझने के लिए तर्क और अपनी इंद्रियों के अनुभव पर निर्भर होना पड़ता है। उन्होंने कहा कि विज्ञान ने स्पष्ट और किंचित गुह्य वस्तुओं की जाँच का प्रयास किया है और एक बार पुनः उनके वैज्ञानिकों के साथ हुए सार्थक विचार विमर्श का उल्लेख किया।
इसके बाद परम पावन ने उनके द्वारा रचित नालंदा के १७ पंडितों की स्तुति पढ़ी, जो नागार्जुन से प्रारंभ होकर, जिनके निर्देशों को उन्होंने अपनी विनाशकारी भावनाओं को रूपांतिरत करने तथा वास्तविकता को समझने में अत्यंत सहायक पाया है। उन्होंने अमरीकी मनोवैज्ञानिक हारून बेक के अवलोकन का उल्लेख किया कि किसी वस्तु के प्रति क्रोधित व्यक्ति का दृष्टिकोण वस्तु का ९०% मानसिक प्रक्षेपण है, जो नागार्जुन की सलाह का अनुपालन है। उन्होंने भारतीय भौतिक विज्ञानी राजा रामण्णा का भी स्मरण किया जिन्होंने उन्हें बताया था कि उन्होंने नागार्जुन की रचनाओं में क्वांटम भौतिकी को परिलक्षित होते देखा है। अंत में, उन्होंने टिप्पणी की कि नागार्जुन के ऐसे श्लोक हैं जिनका वे निजी रूप से पाठ करते हैं और उन पर चिन्तन करते हैं।
स्तुति के छंदों का पाठ करते हुए उन्होंने आर्यदेव, बुद्धपालित और भवविवेक की प्रशंसा की, जिनके विचार प्राचीन भारत में फले-फूले थे। उन्होंने चन्द्रकीर्ति, जिनका 'मध्यमकावतार' और शांतिदेव तिब्बती बौद्ध विद्वानों के लिए एक मानक ग्रंथ है, की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि खुनु लामा रिनपोछे से शांतिदेव के 'बोधिसत्वचर्यावतार', जो वर्णित करता है कि किस तरह करुणा का विकास किया जाए तथा क्रोध का शमन किया जाए, ने उनके जीवन को परिवर्तित कर दिया था।
"आज विश्व के १ अरब बौद्धों के बीच, केवल तिब्बतियों और मंगोलियाइयों ने नालंदा परम्परा को उसके तर्क व कारण सहित जीवित रखा है। यह सीधे रूप से शांतरक्षित की दया के कारण है, जो गुरु पद्मसंभव द्वारा समर्थित थे। शांतरक्षित के छात्र, कमलशील ने चीनी आचार्य की केवल गैरधारणात्मक ध्यान के स्थान पर विश्लेषण और कारण के महत्व को सशक्त किया।
"गहन दृष्टिकोण के इन आचार्यों के अतिरिक्त ऐसे भी थे जिन्होंने व्यापक चर्या की शिक्षा दी जिसका नेतृत्व असंग ने किया जिन्होंने मैत्रेय के पांच ग्रंथ एकत्रित किए। असंग के भाई वसुबंधु की 'अभिधर्मकोषकारिका' चित्त और भावनाओं के प्रकार्य का एक अद्भुत विवरण प्रदान करता है। दिङ्नाग और धर्मकीर्ति ने तर्क और ज्ञान-मीमांसा के बारे में लिखा। विमुक्तिसेन और हरिभद्र ने प्रज्ञा पारमिता शिक्षाओं का स्पष्टीकरण दिया। गुणप्रभ तथा शाक्यप्रभ ने व्यापक रूप से विनय पर लिखा।
"फिर ११वीं सदी में जब तिब्बती सम्राट की केंद्रीय सत्ता ढह गई और बौद्ध परम्पराएँ क्षतिग्रस्त हो गईं तो पश्चिमी तिब्बत में एक छोटे राज्य के शासक ने बौद्ध अध्ययन और अभ्यास को बहाल करने के लिए अतीश को आमंत्रित किया।
"जब ये नालंदा परम्पराएँ भारत में कहीं जीवित नहीं हैं और अपने मूल स्थान, नालंदा में खंडहर रूप में हैं, हम तिब्बतियों को गर्व है कि हमने उन्हें जिंदा रखा है। अब हमारी आशा है कि मात्र प्रार्थना और अनुष्ठान से ही नहीं परन्तु चित्त के प्रशिक्षण तथा तर्क और कारण के उपयोग से हम २१वीं सदी में एक अधिक शांतिपूर्ण विश्व और एक सुखी मानवता का निर्माण कर सकते हैं।"
एक ३० मिनट के चाय के अंतराल के उपरांत, परम पावन ने श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर दिए जो स्वयं के प्रति दया रखने, अध्ययन करने के तरीके, एक सुखी व्यवहार बनाए रखने, प्राचीन भारतीय ज्ञान को व्यवहार में क्रियान्वित करने और और आंतरिक शक्ति की विकास से मानसिक व्याकुलता का प्रतिकार करने से संबंधित थे। नागार्जुन के 'सुह्रल्लेख' प्रारंभ करने से पूर्व, परम पावन ने घोषित किया कि जो बुद्ध ने सिखाया था वे उसकी रूपरेखा देना चाहते थे। उन्होंने कहा कि अधिकांश भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं के साथ सहमति रखते हुए, बुद्ध ने यह विचार कि हम एक के बाद एक जीवन जीते हैं और कर्म की भूमिका को स्वीकार किया।
"विगत कई जीवनों में, बुद्ध को अपने चित्त को प्रशिक्षित करने और सद्कर्म बनाने का अवसर मिला था। उन्होंने अभ्यास किया और प्रबुद्ध बन गए। २६०० वर्ष पूर्व ऐसे सत्व थे, जो इसे ग्रहण करने के लिए तैयार थे और बुद्ध अनुयायियों को यह बताने के लिए कि किस तरह अभ्यास किया जाए एक मानव के रूप में प्रकट हुए। प्रारंभ उन्होंने राजमहल में एक राजकुमार के रूप में जीवन का भोग किया, परन्तु मृत्यु, रोग और जरा के साक्षात्कार ने उन्हें दुःख को दूर करने के प्रति सतर्क कर दिया। राजसी जीवन का परित्याग कर उन्होंने गंभीर ध्यान में छह वर्ष बिताए, जिसमें प्रमुख रूप से शमथ पर अंत में विपश्यना की ओर उन्मुख होकर उन्होंने अनुभव किया कि दुःख का मूल अज्ञान है। प्रज्ञा-पारमिता से वे बुद्ध बने परन्तु 'ललितविस्तर सूत्र' में वे यह कहते हुए उद्धृत किए गए हैं:
"गहरा और शांतिमय, जटिलता से मुक्त,
असंस्कृत प्रभास्वरता -
मैंने अमृत सम धर्म पाया है -
अतः मैं वन में मौन रहूँगा।
"फिर भी, उन्होंने अपने पाँच पूर्व साथियों को खोज निकाला जिन्होंने पाया कि वे एक भिक्षु थे और उनकी वाणी और व्यवहार परिवर्तित हो गया था। उन्होंने उनसे पूछा कि उन्हें क्या हो गया था और उन्होंने कार्य कारण के संदर्भ में चार आर्य सत्यों की व्याख्या की। दुख का मूल उसके कारणों में है जिनसे बचा जा सकता है और मार्ग का अनुसरण कर दुःख का निरोध किया जा सकता है। उन्होंने समझाया कि कोई पीड़ा नहीं चाहता और उससे बचने के लिए हमें उसके हेतुओं को समझना चाहिए और उन्हें समाप्त करना चाहिए।"
परम पावन ने दुख के तीन स्तरों की चर्चा की दुःख- दुःखता, जो पशु भी पहचान लेते हैं और विपरिणाम दुःखता और संस्कार दुःखता जो अस्तित्व में व्याप्त है। उन्होंने चित्त की सूक्ष्मता के विभिन्न स्तरों का भी संदर्भ दिया और किस तरह उन्हें अज्ञान की अज्ञानता का उन्मूलन करने के लिए नियोजित किया जा सकता है। उन्होंने समझाया कि दुःख से मूल में क्लेश हैं जिनका मूल अज्ञान है। इसका प्रतिकार दृश्य और वास्तविकता के बीच के अंतर, कि वस्तुएँ जैसी प्रतीत होती हैं उसी रूप में अस्तित्व नहीं रखती, की समझ से किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि विचारों की परम परम्परा, प्रासंगिक माध्यमिक बल देता है कि ऐसा नहीं है कि वस्तुएँ अस्तित्व नहीं रखतीं और न ही वे जिस रूप में दिखाई देती हैं उस रूप में अस्तित्व रखती हैं, पर यह कि वस्तुएँ मात्र ज्ञापित हैं।
सत्र के समापनार्थ समन्तभद्र प्रार्थना के समर्पण छंदों का सस्वर पाठ हुआ। सभी उपस्थित व्यक्तिओं को, जहाँ वे बैठे थे, स्वादिष्ट शाकाहारी मध्याह्न का भोजन परोसा गया जिसके अंत में परम पावन अपने होटल लौटे जबकि अन्य विद्वानों ने उन्होंने प्रातः जो प्रवचन दिया था उसकी श्रोताओं के साथ समीक्षा की। कल द्वितीय सत्र आयोजित किया जाएगा।