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तालकटोरा स्टेडियम में सार्वजनिक व्याख्यान ५/फरवरी/२०१७

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नई दिल्ली, भारत - आज रविवार की प्रातः नई दिल्ली की सड़कें शांत थीं जब परम पावन दलाई लामा कोहरे से आच्छादित नभ के तले शहर के हृदय में स्थित तालकटोरा स्टेडियम के लिए विद्यालोके द्वारा आयोजित सार्वजनिक व्याख्यान के लिए रवाना हुए। एक बार पुनः श्री और श्रीमती अनलजीत सिंह और उनके पुत्र वीर ने द्वार पर उनका स्वागत किया और अंदर तक उनका अनुरक्षण किया जहाँ उन्होंने कई पुराने मित्रों का अभिनन्दन किया। कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए वे एक पारम्परिक भारतीय दीप प्रज्ज्वलन में सम्मिलित हुए और अपना आसन ग्रहण किया। दो सांस्कृतिक कार्यक्रम हुएः सरस्वती की वन्दना में एक शारदा गीत और 'हृदय सूत्र' के मधुर सस्वर पाठ पर एक कत्थक नृत्य। परम पावन ने दोनों की सराहना की।


वीर सिंह ने विद्यालोके के उद्घाटन पर सार्वजनिक व्याख्यान के लिए आए ३००० से अधिक जनमानस का स्वागत किया, यह टिप्पणी करते हुए कि विभिन्न रूप से जो विकास हुए हैं वे विश्व की परिस्थिति देखते हुए कमज़ोर लगते हैं। यह कहते हुए कि सभी उपस्थित 'श्वेत पद्म धारक' को सुनने के लिए आए थे, अनलजीत सिंह ने परम पावन का परिचय कराया।

"भाइयों और बहनों, मैं वास्तव में आप के बीच यहाँ आकर बहुत खुश हूँ," परम पावन ने घोषणा की, "आप में कइयों के चेहरे परिचित हैं। आप पहले से ही जानते हैं कि मैं क्या कहने जा रहा हूँ। हम सभी मनुष्य के रूप में एक समान हैं कि मैं सदैव मानवता की एकता को स्वीकार करने की आवश्यकता पर बल देता हूँ। हम मानसिक भावनात्मक और शारीरिक रूप से एक समान हैं। हम सभी सुख चाहते हैं - यही हमारे जीवन का उद्देश्य है।हमारा क्या होगा इसको लेकर कोई गारंटी नहीं है, पर हम आशा में जीते हैं कि भविष्य अच्छा होगा। हमारा अस्तित्व उस पर निर्भर करता है।

"हमने अभी ज्ञान की देवी सरस्वती पर एक गीत सुना। बौद्ध परिप्रेक्ष्य से प्रज्ञा शून्यता की समझ है जिसका संकेत कुछ न होना नहीं है, अपितु वस्तुनिष्ठ स्वतंत्रता का अभाव है। परिवर्तन और विकास तभी संभव होता है क्योंकि वस्तुएँ निर्भर होकर अस्तित्व में आती हैं। यदि वे कारण अथवा अन्य कारकों से स्वतंत्र होतीं तो कुछ भी परिवर्तित न हो पाता।

"केवल मैं ही मानवता की एकता पर बल नहीं देता, यह सभी प्रमुख धार्मिक परम्पराओं का आवश्यक संदेश है। यदि हम एक दूसरे को भाई और बहनों के रूप में देखने में सक्षम हों तो हम किस प्रकार एक दूसरे को हानि पहुँचा सकते हैं, या हत्या कर सकते हैं? आज, यदि कोई किसी हाथी या बाघ द्वारा मारा जाता है, तो वह खबर बन जाती है, पर जब लोग एक-दूसरे की हत्या करते हैं तो कोई मुश्किल से उस पर ध्यान देता है। २०वीं शताब्दी के दौरान, कुछ इतिहासकारों का दावा है कि २०० करोड़ लोगों की हिंसा में मृत्यु हो गई, पर उससे क्या लाभ हुआ? यदि इसके परिणामस्वरूप विश्व में सुधार हुआ होता तो इस तरह की हिंसा का औचित्य साबित करना संभव था, पर वास्तव में यह मात्र दुःख लेकर आया।

"२१वीं शताब्दी के प्रारंभ से, हिंसा और कुछ मामलों में धर्म के नाम पर भी ज्वलनशील रही है। यह इस पुरानी सोच को प्रतिबिम्बित करता है कि समस्याओं के समाधान के लिए बल प्रयोग एक सहारा है। परन्तु हिंसा कभी भी हिंसा का अंत नहीं कर सकती। वह केवल मैत्री और सुलह की भावना से दूसरों तक पहुँचने से किया जा सकता है - कोई अन्य तरीका नहीं है।


"आज की वास्तविकता में हमें मानवता-एकता की भावना की सराहना की आवश्यकता है - एक सराहना कि जलवायु परिवर्तन होता है, प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण की आवश्यकता, वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रभाव हम सब को प्रभावित करती है। हमें उनके नुकसान का प्रबंधन करने के लिए एक साथ काम करना है। परन्तु हम अभी भी 'हम' और 'उन' के रूप में सोच के पुराने तरीकों में बंद पड़े हैं।"

परम पावन ने हमारे पास सबसे अद्भुत उपहार के रूप में मानव मस्तिष्क का संदर्भ दिया, पर बल देकर कहा कि इसका उपयोग विनाशात्मक रूप से नहीं बल्कि सकारात्मक रूप से किया जाना चाहिए। उन्होंने इंगित करते हुए कहा कि हमारी कई समस्याएँ जो हमारे समक्ष हैं उनका कारण संकीर्ण सोच और अदूरदर्शिता हैं। बौद्ध परिप्रेक्ष्य के अनुसार सभी क्लेश अज्ञान से जनित होते हैं जिनका एकमात्र समाधान शिक्षा है, न कि अनुष्ठान या प्रार्थना। परन्तु भौतिक लक्ष्यों की ओर केन्द्रित आधुनिक शिक्षा और इसी से मेल खाते आंतरिक मूल्यों की उपेक्षा इसे अपर्याप्त बनाते हैं।

"भारत की दीर्घकालीन परम्परा कि कार्य का रूप अहिंसा है जबकि प्रेरणा करुणा है आज के विश्व के लिए, जिसमें हम आज अपने आप को पाते हैं, बहुत ही प्रासंगिक है। हम सामाजिक प्राणी हैं, जैविक रूप से प्रेम और करुणा के साथ प्रतिक्रिया से लैस हैं। हमारी बुद्धि हमें सभी ७ अरब मनुष्य लोगों तक प्रेम और करुणा देने में सक्षम है। हमारी आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है जबकि प्रेम हमारे अस्तित्व का स्रोत है।

"प्रेम और करुणा जैसे मूल्य और चित्त और भावनाओं के कार्य का ज्ञान, जो हमने भारत से सीखा, को हम तिब्बतियों ने १००० से अधिक वर्षों से जीवित रखा है। ये गुणों आज के विश्व में प्रासंगिक बने हुए हैं और मैं उन्हें पुनर्जीवित करने हेतु जो प्रयास किए जा रहे हैं उनकी सराहना करता हूँ। हम प्रार्थना और अनुष्ठान से नहीं अपितु कारण के माध्यम से चित्त की शांति प्राप्त कर सकेंगे।"

श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देते हुए परम पावन ने तनाव से निपटने के लिए ८वीं सदी के नालंदा आचार्य के व्यावहारिक सलाह का सुझाव दिया कि जिस चुनौती का आप सामना कर रहे हैं, उसका आकलन करें और विचार करें कि क्या आप उस पर काबू पा सकते हैं। यदि आप कर सकते हैं तो चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है और यदि आप नहीं कर सकते तो चिंता से कुछ लाभ न होगा।


उन्होंने प्रशंसित अनुमोदन के साथ टिप्पणी की कि विश्व का अधिकतम जनसंख्या वाला लोकतंत्र अपेक्षाकृत रूप से शांतिपूर्ण है क्योंकि न केवल लोकतंत्र, कानून का शासन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनी हुई है, बल्कि अहिंसा और अंतर्धार्मिक सद्भाव की निहित परम्पराओं के कारण भी। उन्होंने कहा कि मिस्र, चीन और सिंधु घाटी की प्राचीन सभ्यताओं के बीच, प्रतीत होता है सिंधु घाटी ने बुद्ध सहित विचारकों और दार्शनिकों की सबसे बड़ी संख्या को जन्म दिया है।

उन्होंने बंगलौर में एक स्वामी के साथ हुए संवाद के बारे में बताया, जो गरीब बच्चों को खाना खिलाने का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम का आयोजन करते थे। वे दोनों इस बात को लेकर सहमत थे कि हिंदू और बौद्ध धर्म दोनों में शील, शमथ और विपश्यना आम थे। जो बात दोनों परम्पराओं को अलग करती है वह था आत्मा अथवा अनात्मन का दावा। परन्तु परम पावन ने हँसते हुए कहा कि "वह उनकी अपनी व्याक्तिगत बात थी।"

परम पावन ने अपने दृष्टिकोण को दोहराया कि धर्मों के तीन पहलू हैं। प्रेम और करुणा, सहिष्णुता, आत्मानुशासन और संतोष आवश्यक धार्मिक व्यवहार हैं। एक सृजनकर्ता के अस्तित्व के विषय में विचार, हेतु फल नियम के कानूनों इत्यादि इन अभ्यासों का समर्थन करने के लिए कार्य करते हैं। परन्तु ऐसी भी सांस्कृतिक अभिवृद्धियाँ हैं जो अतीत से आई हैं जैसे कि जातिगत भेदभाव जिसका एक लोकतांत्रिक समाज में कोई स्थान नहीं है जहाँ सभी को समान माना जाता है। उन्होंने बल दिया कि ऐसी रीतियों में परिवर्तन होना चाहिए और आध्यात्मिक नेताओं को इन पर बोलना चाहिए।

उनके जीवन के अनुभवों में से कुछ जो मज़ेदार हुआ है उसका स्मरण करने के लिए पूछे जाने पर परम पावन ने बताया कि उन्हें किस तरह उन्हें मुस्कुराना पसंद है और उन्हें कितना अच्छा लगता है जब दूसरे प्रतिक्रिया में मुस्कुराते हैं। उन्होंने सूचित किया कि वे सदैव जापानियों को मुस्कुराने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जो कि इतने गंभीर होते हैं कि मुस्कुराते नहीं। उन्होंने माना कि मुस्कुराहटें कई तरह की होती हैं, साधारण मुस्कान से लेकर कृत्रिम मुस्कान, व्यंग्यात्मक मुस्कान और कूटनीतिक मुस्कान। लेकिन जर्मनी में एक बार ऐसा हुआ कि जब उनकी मुस्कान भी प्रभावी न हो सकी। शाम का प्रारंभिक समय था जब वे कार में बैठे हुए थे। उन्होंने पाया एक युवती उनकी दिशा में आ रही थी, पर उनकी मुस्कान का उत्तर देने के बजाय संदेह में अजीब पोशाक में इस व्यक्ति को देख उसकी त्योरियाँ चढ़ गई। उन्होंने महसूस किया कि उनके पास किसी और दिशा में देखने के अतिरिक्त कोई विकल्प न था।


अंततः यह पूछे जाने पर कि भारत विश्व के लिए क्या कर सकता है, उन्होंने सलाह दी:

"जो अतीत है सो अतीत है, उसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता। पर यदि हम चयन करें तो भविष्य अलग हो सकता है। मैं २०वीं सदी की पीढ़ी का हूँ जिसका समय समाप्त हो चुका है। पर आप में से जो २१वीं सदी के हैं, एक बेहतर विश्व के निर्माण का अवसर रखते हैं और उसका आनंद उठाने के लिए जीवित रह सकते हैं। पर ऐसा अपने आप नहीं होगा। आप को एक अधिक सुखी, अधिक शांतिपूर्ण भविष्य की दृष्टि विकसित करनी होगी और अब इसे सार्थक करने के लिए प्रयास करना होगा। यह आत्मसंतोष का समय नहीं है - आशा आपकी क्रियाशीलता में निहित है।"

मध्याह्न भोजनोपरांत विद्यालोके प्रतिभागियों के साथ इस बात पर कि किस तरह आगे बढ़ा जाए पर विचार-विमर्श करने के लिए, परम पावन ने स्पष्ट रूप से कहा कि वे जितना आध्यात्मिक विकास की बात नहीं कर रहे थे उससे अधिक बात कर रहे थे कि लोगों को इसकी खोज करने के लिए सहायता की जाए कि नित्य प्रति के जीवन में किस तरह सुखी रहा जाए। "हमारा लक्ष्य है," उन्होंने कहा, "मानवता है, आस्थावान नहीं।"

उन्होंने सूचित किया कि उन्होंने हाल ही में दक्षिण भारत में तिब्बती महाविहारों में भिक्षुओं से कहा कि यदि वे अनुभव करें कि लोग सक्रिय रूप से नालंदा परम्परा को जीवित रखने के लिए कार्यरत हैं तो जब उनकी मृत्यु का समय आएगा तो वह आराम का अनुभव करेंगे। उन्होंने कहा कि यदि वह आश्वस्त हों कि आगामी पीढ़ी वास्तव में एक बेहतर विश्व का निर्माण करने के लिए काम कर रही है तो वह भी उन्हें चैन देगा। अभी तक उन्होंने जो किया है उसके लिए परम पावन ने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा कि वे निकट भविष्य की बैठकों का प्रतीक्षा करेंगे।

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