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'भावनाक्रम' और 'बोधिसत्व के ३७ अभ्यास' पर प्रवचन १३/मार्च/२०१७

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थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत - मुख्य तिब्बती मंदिर चुगलगखंग और उसके आसपास के बरामदे साथ ही नीचे के प्रांगण, परम पावन दलाई लामा के आगमन की प्रतीक्षा में लोगों से भरे हुए थे। जब परम पावन आए तो वे सिंहासन के समक्ष खड़े हुए, अभिनन्दन में हाथ ऊपर किए और ध्यान से देखा कि वहाँ कौन कौन थे । भीड़ में तिब्बत से तीर्थयात्री थे और जब वे सिंहासन पर बैठे तो परम पावन ने उनको संबोधित किया।

His Holiness the Dalai Lama greeting members of the crowd gathered in the courtyard as he makes his way to the Main Tibetan Temple for the first day of his two day teaching in Dharamsala, HP, India on March 13, 2017. Photo by Tenzin Choejor/OHHDL

"चूंकि आप में से अधिकांश हाल ही के कालचक्र अभिषेक में सम्मिलित नहीं हो सके, यह प्रवचन मुख्य रूप से आपके लिए है। मैं हृदय से आप तिब्बत के लोगों की आध्यात्मिक शक्ति का बहुत प्रशंसक हूँ। आज चीन में ४०० करोड़ बौद्ध हैं जो हमारी तरह परम्पराओं का पालन करते हैं, पर जहाँ हममें अंतर है वह हमारे तर्क और कारणों के उपयोग में है। बौद्ध धर्म पहली बार ७वीं सदी में तिब्बत में लाया गया था जब सम्राट सोंगचेन गम्पो ने एक चीनी और एक नेपाली राजकुमारी से विवाह किया और उनमें से प्रत्येक अपने साथ बुद्ध की प्रतिमा लेकर आईं। पर जब सम्राट ठिसोंग देचेन देश में बौद्ध धर्म को सशक्त करना चाहते थे तो वे भारत की ओर उन्मुख हुए और शांतरक्षित को आमंत्रित किया, जो नालंदा के शीर्ष विद्वानों में से एक थे।
"शांतिरक्षित संभवतः इतने व्यापक रूप से ख्याति प्राप्त नहीं थे पर जब हम जो उन्होंने लिखा, उसे पढ़ते हैं तो हमें उनकी क्षमता का आभास होता है। उनकी रचनाओं में 'मध्यमकलंकार' शामिल है, जिसका संबंध चित्त मात्र परम्परा और माध्यमक परम्परा के विचारों में जो समानता है उससे और 'तत्त्वसंग्रह' ज्ञानमीमांसा की व्याख्या से संबंधित है।

"यह ठिसोंग देचेन का शासनकाल था जिसमें सम्ये महाविहार की स्थापना हुई। इसमें एक महाविहारीय वर्ग और एक अनुवाद अनुभाग शामिल था, जहाँ कांग्यूर और तेंग्यूर में संग्रह किए जाने वाले ग्रंथों का अनुवाद किया गया था। सोंगचेन गम्पो के समय से तिब्बत में चीनी भिक्षु थे और उनमें से कई अविचलित एकाग्रता अनुभाग का अंग थे, जो शमथ पर केंद्रित था। इनमें से कुछ भिक्षुओं ने ज़ोर देकर कहा कि अध्ययन की कोई आवश्यकता नहीं है, उनका दावा था कि निर्वाण प्राप्त करने के लिए जो आवश्यक था, वह था चित्त को रिक्त करना।

"शांतिरक्षित का पूर्वानुमान था कि उनके धर्म के तर्कसंगत, कारण सहित दृष्टिकोण और इस गैर-अवधारणा विधि के बीच एक संघर्ष उत्पन्न हो सकता है। उन्होंने सम्राट को सलाह दी कि वे इससे निपटने के लिए वे उनके शिष्य कमलशील को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित करें। कमलशील भी ज्ञानमीमांसा के विद्वान थे। उनका दृष्टिकोण प्रचलित हुआ और तिब्बत एकमात्र बौद्ध देश बना जहाँ नालंदा परम्परा और तर्क और मीमांसा का उपयोग संरक्षित हुआ। हमने इसे १००० वर्षों से अधिक जीवित रखा है।"

परम पावन ने टिप्पणी की कि हाल के वर्षों में विशेष रूप से केंद्रीय तिब्बत के महाविहारों में, तिब्बत में इन परम्पराओं को बनाए रखने के अवसर कठिन हो गए हैं, पर खम और अमदो में इतना कठिन नहीं रहा है।

His Holiness the Dalai Lama during the first day of his two day teaching at the Main Tibetan Temple in Dharamsala, HP, India on March 13, 2017. Photo by Tenzin Choejor/OHHDL

उन्होंने उल्लेख किया कि जिस प्रथम ग्रंथ का पाठ वह करना चाह रहे हैं, कमलशील के तीन भाग के 'भावनाक्रम' का मध्य भाग, उसकी रचना ठिसोंग देचेन के अनुरोध पर तिब्बत में की गई थी। उन्होंने कहा कि उन्हें लगता है कि तिब्बतियों के साथ इसका विशेष संबंध है। उस समय, ठिसोंग देचेन बहुत प्रभावशाली व्यक्ति थे, और उनका सम्पूर्ण तिब्बत पर प्रभुत्व था। परम पावन ने इस की तुलना ङारी मुखिया की स्थिति के साथ की, जिन्होंने अतीश को तिब्बत आने हेतु आमंत्रित किया था और जिन्होंने 'बोधिपथप्रदीप' की रचना करने का अनुरोध किया था। उन्होंने स्पष्ट किया कि 'भावनाक्रम' के तीन खंडों में, पहले का संबंध शमथ से है, दूसरे और मध्य का विषय शमथ और विपश्यना है, जबकि तीसरा विपश्यना पर केंद्रित है।

दूसरा ग्रंथ जिसका पाठ वे करने वाले हैं, 'बोधिसत्व के ३७ अभ्यास', परम पावन ने उल्लेख किया कि रचनाकार, ज्ञलसे थोगमे संगपो, जो महान विद्वान बुतोन रिंचेन डुब के समकालीन थे, व्यापक रूप से एक अनुभूति युक्त बोधिसत्व के रूप में माने जाते थे। ऐसा सूचना है कि जब ये दो आचार्य मिले तो बुतोन रिनपोछे, जिनके पैरों में कुछ कठिनाई थी, ने आराम प्राप्त करने के लिए थोगमे संगपो से आशीर्वाद का अनुरोध किया था।

लघु प्रार्थनाओं का पाठ किया गया और परम पावन ने सलाह दी कि हर किसी को, शिक्षक व छात्र को प्रवचन के संबंध में अपनी प्रेरणा को ठीक कर लेना चाहिए। शरण गमन तथा बोधिचित्तोत्पाद के छंदों के संबंध में उन्होंने कहा कि प्रायः लोग त्रिरत्न को उसे प्राप्त करने की आकांक्षा के स्थान पर एक सृजनकर्ता ईश्वर की तरह मानते हैं।

"जैसा कि मैंने कल कहा था, हमें क्लेशों और उनके संस्कार का पूर्ण रूप से उन्मूलन कर चित्त की प्रकृति में अंतर्दृष्टि प्राप्त करने की आवश्यकता है। नागार्जुन का कहना है कि कर्मों और क्लेशों का उन्मूलन मुक्ति जनित करता है। बुद्ध की शिक्षा की समझ से वस्तुओं को देखने के हमारे विकृत रूप पर काबू पाया जा सकता है। और तिब्बत में हमारे पास तीन यानों की सम्पूर्ण देशना है जिसमें आधारभूत निर्देश, प्रज्ञा- पारमिता और तंत्र शामिल हैं।"

'भावनाक्रम' का पाठ करते हुए परम पावन ने पुनः क्लेशों से निपटने के महत्व को संकेतित किया। उन्होंने कहा कि यह उनकी प्रकृति है कि जिस क्षण वे हमारे चित्त में उत्पन्न होते हैं, वे हमें विचलित करते हैं। यदि हम अपने अनुभव का परीक्षण करें तो हम इसे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। उन्होंने आगे कहा कि आज वैज्ञानिक भी मानते हैं कि चित्त की शांति हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छी है।

Some of several thousand gathered in the courtyard waiting for His Holiness the Dalai Lama to depart from the Main Tibetan Temple at the conclusion of the first day of his two day teaching in Dharamsala, HP, India on March 13, 2017. Photo by Tenzin Choejor/OHHDL

"बुद्ध की शिक्षा में जो अनूठापन है वह उनकी नैरात्म्य की व्याख्या है। अपने आप में शब्दों को दोहराना मात्र पर्याप्त नहीं है, यह समझना आवश्यक है कि इसका क्या अर्थ है - वस्तुएँ जिस रूप में प्रतीत होती हैं, उस रूप में उनका अस्तित्व नहीं है।"

'भावनाक्रम' का पाठ पूरा न कर पाने के कारण, परम पावन ने अपने श्रोताओं से कहा कि चूँकि उनके पास ग्रंथ की प्रतियां थीं, वे इसे स्वयं पढ़ सकते हैं और इसे समझने का प्रयास कर सकते हैं। तत्पश्चात उन्होंने 'बोधिसत्व के ३७ अभ्यासों' का पाठ किया, जिस दौरान उन्होंने पुनः कहा कि वस्तुएँ जिस रूप में अस्तित्व रखती हैं उसको लेकर हमारा एक विकृत दृष्टिकोण है। हम उसे बढ़ा चढ़ा देते हैं, वस्तुओं को स्वतंत्र अस्तित्व लिया हुआ देखते हैं, कर्म निर्मित करते हैं और उस कारण समस्याओं का सामना करते हैं।

अपने पाठ के अंत में परम पावन ने कहा कि उन्होंने 'भावनाक्रम' की शिक्षा सक्या उपाध्याय संज्ञे तेनेज़िन से प्राप्त की थी। सक्या उपाध्याय ने इसे उस समय सुना जब वे ल्हासा से सम्ये गए थे और उन्होंने इसे वहाँ के एक ज़ोगछेन लामा द्वारा समझाते हुए पाया। परम पावन को '३७ अभ्यास' की शिक्षा खुनु लामा तेनज़िन ज्ञलछेन से मिली। उन्होंने आगे कहा कि जिस ग्रंथ की प्रति का उपयोग वे निजी तौर पर करते हैं और उसे सभी को दिखाया, उसे ल्हासा से पूर्व ल्हचुन रिनपोछे ने भेजा था।

घोषणा करते हुए कि वह कल अवलोकितेश्वर अभिषेक प्रदान करेंगे, परम पावन ने घोषणा की कि वे कल जे रिनपोछे के 'मार्ग के तीन प्रमुख आकार' पर प्रवचन देंगे जो उस पुस्तक में शामिल है जो श्रोताओं को वितरित की गई थी, प्रारंभिक शिक्षण के रूप में।

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