नई दिल्ली, भारत, २७ अप्रैल २०१७ - परम पावन दलाई लामा कुछ दिनों पहले एक नियमित चिकित्सा जांच के लिए दिल्ली आए थे, जो भली भांति निपट गया और वे राजधानी में अपने कई पुराने मित्रों से मिले। आज प्रातः उन्होंने अपनी चर्चा से पहले सार्वभौमिक मूल्यों के पाठ्यक्रम के लिए कार्य कर रहे प्रधान सदस्यों के लिए एक लघु संबोधन से अपना दिन प्रारंभ किया।
"अभिनन्दन," उन्होंने प्रारंभ किया, "हम यहाँ केवल एक अच्छी गपशप के लिए नहीं आए हैं। इसके बावजूद कि हमने कई उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं, हम मनुष्य कई अन्य समस्याओं का सामना कर रहे हैं, जिनमें लोगों द्वारा एक-दूसरे की हत्या करना शामिल है। सौभाग्य से ऐसे प्रमाण हैं कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। जब मैंने यह सुना तो मेरा विश्वास और अधिक दृढ़ हो गया कि प्रयास करने पर हम आधारभूत मानव मूल्यों की भावना को बढ़ावा दे सकते हैं।
"जब हम बच्चे होते हैं तो प्रेम व स्नेह हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग हैं, पर जैसे जैसे हम बड़े होते हैं उनका स्थान क्रोध, शंका और ईर्ष्या ले लेते हैं। हम क्रोध को अपना एक स्वाभाविक अंग मानते हैं और इसका एक रक्षात्मक पक्ष हो सकता है, पर यदि हम उसे काबू से बाहर जानें दें तो वह एक समस्या बन जाता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में आंतरिक मूल्यों पर बहुत कम चर्चा हुई है। हम करुणा पर अधिक ध्यान नहीं देते। परम्परागत रूप से लोग आंतरिक मूल्यों के लिए धर्मोन्मुख होते थे, पर अब धर्म और शिक्षा अलग-अलग मार्ग अपनाते हैं। आज जीवित ७ अरब मनुष्यों में से १ अरब लोगों की कोई आस्था नहीं है। पर इसके बावजूद मानवता के अंग के रूप में उन्हें भी आंतरिक मूल्यों की आवश्यकता है, जो सुख व आनंद का स्रोत है।
"शिक्षा हमारी एकमात्र आशा है, पर शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच आम सहमति के कारण कि जब आंतरिक मूल्यों से निपटने की बात आती है तो वर्तमान शिक्षा व्यवस्था प्रणाली अपर्याप्त है, हमने धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के दृष्टिकोण को सुनियोजित करने के लिए इस समूह का गठन किया। ये मूल्य हमारी भावनाओं से संबंधित हैं, अतः हमें उनकी और चित्त के प्रकार्य की एक बेहतर समझ की आवश्यकता है।
"इस देश में शमथ - ध्यान तथा विपश्यना - अंतर्दृष्टि की परम्पराओं के साथ चित्त की गहन समझ है, जो सम्प्रति विश्व के लिए प्रासंगिक है।"
उन्होंने कहा कि तिब्बतियों ने दीर्घ काल से स्वयं को भारतीय गुरुओं का चेला माना है, पर समय के साथ गुरु ने इस प्राचीन ज्ञान की उपेक्षा की है, जबकि चेले ने इसे बनाए रखा है। अब इसे एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण से लोगों के साथ साझा किया जाना चाहिए, उतना ही जितना कि आज योग और जागरूकता को धर्मनिरपेक्ष प्रस्तुति दी जाती है।
"विगत ५८ वर्षों से मैं भारतीय दाल और रोटी खाता रहा हूँ, जबकि मेरा चित्त नालंदा विचारों से भरा है। शारीरिक और मानसिक रूप से मैं स्वयं को भारत का पुत्र मानता हूँ, अतः मैं आपसे कह सकता हूँ कि 'हम भारतीयों को अपने प्राचीन ज्ञान को पुर्नजीवित करने की आवश्यकता है।' समस्याएँ, हम मनुष्यों ने निर्मित की हैं, हम मनुष्यों द्वारा ही उनका समाधान करने की आवश्यकता है। यह कहना पर्याप्त नहीं है कि 'युद्ध मानव इतिहास का अंग है' - कोई भी इससे उत्पन्न दुख नहीं चाहता। अधिक करुणाशील विश्व के निर्माणार्थ हमें तर्क को काम में लाने की आवश्यकता है और इसी कारण जो प्राचीन काल के भारतीयों ने समझा मैं उसे पुनर्जीवित करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ। मेरे पास काफी तीक्ष्ण बुद्धि है, पर मुझे इन विचारों को कार्यान्वित करने के लिए आप जैसे लोगों की सहायता की आवश्यकता है। चूँकि मेरी आयु ८२ वर्ष की हो चुकी है - समय कम है - हमें अभी प्रारंभ करने की आवश्यकता है।"
मध्याह्न भोजनोपरांत, परम पावन गाड़ी से एक लघु दूरी तय कर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के लिए प्रोफेसर एम एल सोंधी पुरस्कार ग्रहण करने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर गए। आगमन पर उनकी पुरानी मित्र श्रीमती माधुरी संतानम सोंधी और उनके परिवार के सदस्यों ने उनसे भेंट की, जो उन्हें छोटे सभागार में ले गईं। अपने भावपूर्ण परिचय में श्रीमती सोंधी ने नई दिल्ली में १९४७ में हुए एशियाई संबंध सम्मेलन के दौरान प्रथम बार तिब्बत के विषय में सुनने का उल्लेख किया, जिसमें तिब्बती प्रतिनिधि शामिल हुए थे। इसके बाद १९५६ में परम पावन ने बुद्ध जयंती समारोह में भाग लिया और १९५९ में वे भारत में निर्वासन में आए। तब वह ऑक्सफोर्ड की एक छात्रा थीं, पर स्मरण किया कि उन्होंने राघवन अय्यर द्वारा परम पावन के साथ मसूरी में लिए गए एक साक्षात्कार की रिकार्डिंग में परम पावन की आवाज़ सुनी थी।
उन्होंने स्मरण किया कि प्रोफेसर एम एल सोंधी भारतीय विदेश सेवा में शामिल हुए थे और वे पहली बार प्राग में और तत्पश्चात संयुक्त राष्ट्र में सेवारत थे, जहाँ ६० के दशक के पूर्वार्ध दिनों में उन्होंने तिब्बत पर बहस सुनी थी। १९६२ में उन्होंने तिब्बत-स्वराज समिति का गठन किया। बाद में वे परम पावन के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए भारतीय नामांकित व्यक्ति थे। उन्होंने परम पावन का परिचय वाक्लाव हेवल से कराया और इज़राइल की उनकी प्रथम यात्रा का आयोजन किया। अंतिम समय तक उनका तिब्बत के भविष्य के संबंध में एक मुक्त विश्वास था।
श्रीमती सोंधी ने भी परम पावन की उपलब्धियों को संदर्भित किया - निर्वासन में तिब्बती समुदाय के लिए लोकतंत्र का प्रारंभ, नैतिक मूल्य, धर्मनिरपेक्ष नैतिकता तथा विज्ञान और आध्यात्मिकता के बीच संवाद के महत्व की आवश्यकता पर उनका ज़ोर देना।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के लिए प्रोफेसर एम एल सोंधी पुरस्कार के प्रशस्ति पत्र पढ़ने के लिए आमंत्रित किए जाने पर, प्रो सोंधी के पुत्र विवेकानंद ने परम पावन की ५ बिंदु की शांति योजना और भारत और चीन के बीच मध्यवर्ती राज्य, शांति के एक क्षेत्र के रूप में तिब्बत की संभावित भूमिका का उल्लेख किया। उन्होंने टिप्पणी की कि परम पावन ने भी चीन के ढोंग को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है कि तिब्बत सदैव चीन का एक अंग रहा है।
प्रशस्ति पत्र में परम पावन को अहिंसा के सिद्धांत, धार्मिक उत्पीड़न के संबंध में उनके विरोध तथा उनके द्वारा विज्ञान और आध्यात्मिकता के बीच संवाद को प्रोत्साहित करने के प्रयास उल्लखित है।
अपनी बारी आने पर पूर्व विदेश सचिव ललित मानसिंह ने तिब्बत के मुद्दों और भारत-चीन संबंधों में तिब्बत की भूमिका की उनकी घोषणा को लेकर प्रोफेसर सोंधी के निरंतर प्रयासों की प्रशंसा की। उन्होंने परम पावन को अच्छे स्वास्थ्य, दीर्घायु और यह कि वह लंबे समय तक तिब्बती लोगों का नेतृत्व कर सकें, की कामना करते हुए समाप्त किया।
ललित मानसिंह ने परम पावन को दुशाले की पारम्परिक भेंट प्रस्तुत की, जबकि श्रीमती सोंधी ने उन्हें एक गिलास पट्टिका प्रस्तुत की जिसमें उनके द्वारा प्रोफेसर एम एल सोंधी पुरस्कार की प्राप्ति अंकित थी।
मुख्य अतिथि अरुण शौरी ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात रखी कि साधारणतया जब पुरस्कार दिए जाते हैं तो प्राप्तकर्ता सम्मानित होते हैं, पर यह एक ऐसा दुर्लभ अवसर है जहाँ पुरस्कार स्वयं गौरवान्वित है, क्योंकि यह परम पावन जैसे व्यक्तित्व को प्रदान किया गया है। उन्होंने परम पावन की नैतिक आधिकारिकता की तुलना गांधी जी से की। उन्होंने एक न्यूयॉर्क टाइम्स के साक्षात्कारकर्ता का उद्धरण दिया जिसने परम पावन से पूछा गया कि चीनियों द्वारा तिब्बत में इतना कुछ किए जाने पर भी परम पावन मुस्कुरा रहे थे और परम पावन का उत्तर था, "चूँकि चीनियों ने इतना कुछ ले लिया है, मैं उन्हें अपनी चित्त की शांति क्यों छीनने दूँ?" जिस तरह से परम पावन ने तिब्बतियों के उत्साह को बनाए रखा है, उन्होंने उसकी सराहना की। उन्होंने न केवल उनकी विद्वत्ता की, बल्कि वे जिस सहज भाव से उसे संभालते हैं, उसकी प्रशंसा की। अंत में, उन्होंने परम पावन के चित्त की उन्मुक्तता पर टिप्पणी की।
जब परम पावन के संबोधन की बारी आई तो उन्होंने शुरू किया:
"प्रिय भाइयों और बहनों, मैं सदैव इसी तरह प्रारंभ करता हूँ क्योंकि मानव रूप में हम सब समान हैं। यही कारण है कि मैं मानवता की एकता को पहचानने की आवश्यकता पर बल देता हूँ। हर किसी की तरह मैं भी सुख तथा आनंद चाहता हूँ। हम सभी सुखी जीवन की कामना करते हैं पर इसके बजाय समस्याएँ हमारे प्रत्यक्ष मुंह बाएँ खड़ी रहती हैं, जिनमें से अधिकांश स्वनिर्मित हैं। परन्तु एक आशावान तथ्य यह है कि वैज्ञानिकों ने साक्ष्य पाएँ हैं जो दर्शाते हैं कि मूल रूप से मानव स्वभाव करुणाशील है। इस आधार पर हम वर्तमान शताब्दी के अंत तक एक बेहतर और अधिक शांतिपूर्ण विश्व का निर्माण कर सकते हैं - यदि हम यह प्रयास को अभी शुरू करें।
"मैं वास्तव में यूरोपीय संघ की भावना की प्रशंसा करता हूँ, राष्ट्रीयता और संप्रभुता पर शताब्दियों से एक दूसरे से लड़ने के बाद यूरोप के राष्ट्रों ने सर्वप्रथम अपने समान हितों के बारे में सोचने और उन्हें एक-दूसरे के साथ साझा करने का निश्चय किया। उदाहरणार्थ यदि यह भावना अफ्रीका में लागू की जाए तो यह बहुत हद तक संघर्ष को समाप्त कर सकता है और शस्त्रों पर खर्च की जाने वाली धन राशि कृषि और शिक्षा में सुधार लाने के लिए खर्च की जा सकती है।"
परम पावन ने व्यापक स्तर पर सौर ऊर्जा संसाधनों की प्रतिस्थापना कर सहारा रेगिस्तान को हरित कर, जिसे बाद में विलवणीकरण केन्द्र के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है, के अपने बहुत दिनों से देखे गए स्वप्न का उल्लेख किया। इस तरह से उत्पन्न मीठा जल रेगिस्तान को हरा कर सकता है और खाद्य फसलों का उत्पादन कर सकता है। उन्होंने सुझाव दिया कि ऑस्ट्रेलिया के तट से अंदर की ओर काम कर रही इस तरह की योजना उस महाद्वीप को भी परिवर्तित कर सकती है और बढ़ते समुद्र के स्तर को व्यावहारिक उपयोग के लिए काम में लाया जा सकता है।
उन्होंने सौहार्दता की भावना की हमारे स्वास्थ्य पर लाभों की बात की। यह हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को सशक्त करता है जबकि क्रोध, भय और शंका इसे दुर्बल करते हैं। और तो और चित्त शांति हमारी बुद्धि के पूर्ण उपयोग के लिए एक पूर्व शर्त है। तनाव स्पष्ट रूप से सोचने की हमारी क्षमता को रोक देता है।
"हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली भौतिक लक्ष्यों की ओर उन्मुख होने लगती है, जिसमें आंतरिक मूल्यों के लिए बहुत कम स्थान होता है। हम आम अनुभव, सामान्य ज्ञान और वैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर मानव मूल्यों के लिए एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण लेकर आधुनिक शिक्षा को समृद्ध करने हेतु प्रतिबद्ध हैं। इसमें हम भारत के उदाहरण का अनुपालन कर रहे हैं, एक आबादी वाला, प्राचीन राष्ट्र जहाँ सदियों से विश्व की प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ फली फूली हैं।"
तिब्बतियों के लिए प्रोफेसर सोंधी के समर्थन का स्मरण करते हुए, परम पावन ने कहा कि वह तिब्बत के लिए न्याय से अधिक न्याय के समर्थक थे, क्योंकि तिब्बत का मुद्दा सत्य और वास्तविकता पर आधारित है। उन्होंने उल्लेख किया कि ८वीं शताब्दी के बाद से, जब से शांतरक्षित तिब्बत में आमंत्रित किए गए थे, तिब्बतियों ने नालंदा परम्परा को अध्ययन और अभ्यास के माध्यम से जीवित रखा है। बीस वर्षों के श्रमसाध्य अध्ययन ने महान गुणवत्ता वाले विद्वानों को जन्म दिया है। तिब्बती परम्परा वास्तव में नालंदा परम्परा है, जो कि आज व्यापक विश्व के लिए लाभकारी हो सकती है।
श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर में, परम पावन ने धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के मूल्य से लेकर सेंसरशिप की अनैतिकता और यह गलत सूचनायें जो १.३ अरब चीनी लोगों वास्तविकता जानने से रोकता है, जैसे कई विषयों को सम्मिलित किया। उन्होंने कहा कि यदि उन्हें ऐसा प्राप्त होता तो चीनी गलत और सही में अंतर करने में सक्षम होंगे। उन्होंने अपनी भावना को दोहराया कि प्राचीन भारतीय ज्ञान में प्रकट किए गए चित्त और भावनाओं की समझ की तुलना में आधुनिक मनोविज्ञान आदिम लगता है।
प्रोफेसर सोंधी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में पढ़ाते थे और श्रोताओं में तिब्बती जेएनयू छात्रों का एक समूह था। जब विश्वविद्यालय के कर्मचारियों के एक सेवारत सदस्य ने परम पावन से पूछा कि वे छात्रों के बीच आत्महत्याओं के बढ़ते ज्वार के बारे में क्या सलाह देंगे तो उन्होंने पुनः कहा कि भावनाओं के साथ समझौता करने की आवश्यकता है और इसे भारतीय प्राचीन ज्ञान के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक और उदाहरण का रूप बताया।
जब एक बार फिर उनके पुनर्जन्म का प्रश्न उठाया गया तो परम पावन ने न्यूयार्क में दिए हुए कुछ समय पहले की अपनी प्रतिक्रिया दोहराई, जब उन्होंने अपना चश्मा उतारा था और अपने प्रतिद्वंदी को चुनौती देते हुए कहा था कि वे उन के चेहरे की ओर देखें और बताएँ कि क्या इस प्रश्न का उत्तर अत्यावश्यक है।
कल, परम पावन धर्मशाला लौटने से पूर्व सार्वभौमिक मूल्यों के पाठ्यक्रम पर कार्यरत मुख्य कमेटी की रिपोर्ट सुनेंगे।