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केंद्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान का स्वर्ण जयंती समारोह १/जनवरी/२०१८

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बोधगया, बिहार, भारत, आज प्रातः केंद्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान में परम पावन दलाई लामा द्वारा मंच पर अपना आसन ग्रहण करते ही छात्रों ने कुलगीत गाया। तत्पश्चात परम पावन के साथ कुलपति गेशे ङवंग समतेन, गदेन ठिपा, ठंगु रिनपोछे, सिक्योंग डॉ लोबसंग सांगे और तिब्बती निर्वासित संसद के अध्यक्ष खेनपो सोनम तेनफेल दीपक की एक श्रृंखला को प्रज्ज्वलित करने के लिए सम्मिलित हुए। भिक्षु छात्रों के एक समूह ने तिब्बती में मङ्गल छंदो का पाठ किया। इसके बाद छात्राओं के एक समूह ने उन्हीं छंदों का पाठ संस्कृत में किया।

कुलपति गेशे ङवंग समतेन ने अपना स्वागत संबोधन अतिथियों में परम पावन और अन्य गणमान्य व्यक्तियों के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए किया। उन्होंने स्मरण किया कि १९५९ में परम पावन और लगभग ८०,०००, तिब्बती भारत पहुँचे जब अपने देश में तिब्बत धर्म और संस्कृति पर आक्रमण हुआ। परम पावन की दूरदर्शिता के फलस्वरूप, बच्चों को शिक्षित करने के लिए स्कूलों की स्थापना की गई और आवास स्थापित किए गए ताकि तिब्बतियों के समूह अपनी अस्मिता का संरक्षण कर सकें। भारत सरकार ने पूर्ण समर्थन प्रदान किया।
 
समय के साथ, प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी केंद्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान की स्थापना के लिए अपना समर्थन दिया, जिसे १९६८ में सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय के साथ सम्बद्ध किया गया। ज़ोंग रिनपोछे ने प्रथम तीन वर्षों तक प्रधानाचार्य के रूप में कार्य किया और उसके बाद प्रो. समदोंग रिनपोछे आए, जिन्होंने ३० वर्षों तक कार्य किया। विख्यात विद्वान जैसे, पंडित जगन्नाथ उपाध्याय और श्रीमती कपिला वात्स्यायन ने संस्थान के विकास में योगदान दिया। उद्देश्य ऐसे छात्रों को तैयार करना था जो बुद्धिमान, कुशल होने के साथ ही दयालु भी हों और समाज में योगदान देने के लिए प्रेरित हों। उन्हें उच्च लक्ष्य रखने के लिए प्रोत्साहित किया गया था।
 
संस्थान का एक और प्रारंभिक उद्देश्य उन शास्त्रीय ग्रंथों, जिनका भोट भाषा में अनुवाद हुआ है, का संस्कृत पुनरुद्धार और हिन्दी में अनुवाद था। अब तक लगभग ऐसे ८० ग्रंथ पूरे किए जा चुके हैं। और लगभग १०० का संस्कृत से हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है। विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों पर शास्त्रार्थ की भारतीय परम्परा को पुनर्जीवित करने के प्रयास भी किए गए हैं। तिब्बती चिकित्सा परंपरा में अनुसंधान के परिणाम उत्साहजनक रहे हैं। तिब्बती साहित्य के अध्ययन और इतिहास पर केंद्रित एक केंद्र खोला गया है। इसके अतिरिक्त बिहार सरकार के साथ एक पर्याप्त परियोजना की परिकल्पना की गई है जिसमें उन ग्रंथों के पूरे संग्रह का अनुवाद है जो राहुल सांकृत्यायन तिब्बत के बाहर लेकर आए।

छात्रों को अपने अनुभव का विस्तार करने के लिए एक ग्रीष्म स्कूल की स्थापना की गई है। भारत के विभिन्न भागों में संस्थान की शाखाएँ स्थापित करने की योजनाएँ चल रही हैं। इससे संबंधित शिक्षक प्रशिक्षण को बढ़ाने की योजना है।
 
इतने सारे लोगों की आशा देने के लिए कुलपति ने परम पावन के प्रति बहुत आभार व सराहना व्यक्त की। उन्होंने विगत ५० वर्षों में निरंतर समर्थन के लिए भारत सरकार का भी आभार व्यक्त किया। उन्होंने इस जानकारी के साथ अपने भाषण का समापन किया कि संस्कृति मंत्री, जो कुलपति भी हैं, और संस्कृति मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव उड़ानों में विलम्ब के कारण समारोह में भाग न ले सके।
 
परम पावन ने सर्वप्रथम स्वर्ण जयंती स्मृति पुस्तिका और फिर संस्थान के कई अन्य प्रकाशनों का विमोचन किया। 

संस्थान ने परम पावन, भारत सरकार, संस्कृति मंत्रालय और कशाग साथ ही समदोंग रिनपोछे और डॉ श्रीमती कपिला वात्सयायन को कृतज्ञता के प्रतीक प्रस्तुत किए। तत्पश्चात संस्थान के पूर्व छात्रों ने परम पावन, भारत सरकार, प्रोफेसर समदोंग रिनपोछे और डॉ श्रीमती कपिला वात्सयायन के साथ-साथ सेवानिवृत्त शिक्षकों को भी कृतज्ञता के प्रतीक प्रस्तुत किए।

प्रो देव राज सिंह ने संस्कृति मंत्री के संदेश को पढ़ा, जिसके बाद निर्वासित तिब्बती संसद के अध्यक्ष खेनपो सोनम तेनफेल ने भोट भाषा में सभा को संबोधित किया।
 
सिक्योंग डॉ लोबसंग सांगे ने केंद्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान को उसकी ५० वर्षगांठ पर केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन की ओर से बधाई दी। उन्होंने संस्थान के विकास में योगदान के लिए पूर्व शिक्षकों की सराहना की और नेतृत्व के लिए कुलपति को बधाई दी। उन्होंने श्रद्धेय समदोंग रिनपोछे को संस्थान के लिए अपने जीवन के ३० वर्ष समर्पित करने के लिए उनकी प्रशंसा की। जहाँ तक भविष्य का प्रश्न था उन्होंने छात्रों और शिक्षकों को तिब्बत की प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सक्रिय होते हुए मानवीय मूल्यों और अंतर-धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने, भोट भाषा, धर्म और संस्कृति को जीवित रखने का प्रयास करते हुए और अंत में भारत में प्राचीन भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करने के लिए परम पावन के उदाहरण को ध्यान में रखने का आग्रह किया।
 
सिक्योंग ने उल्लेख किया कि तिब्बत के कब्जा करने के बाद, साम्यवादी चीनियों ने भिक्षु तथा भिक्षुणियों को अपने चीवर त्यागने के लिए बाध्य कर तथा विहारों को नष्ट कर तिब्बती धर्म और संस्कृति को समाप्त करने का प्रयास किया। उन्होंने सोचा कि वे सफल हो गए, पर वे तिब्बतियों, हिमालयी क्षेत्र के लोगों और यहाँ तक कि चीनी बौद्धों में नालंदा परम्परा को पुनः स्थापित करने के परम पावन के प्रयासों का आकलन ठीक से न कर सके। उन्होंने प्रार्थना की कि परम पावन दीर्घायु हों, तिब्बती लोगों की इच्छाओं की पूर्ति हो तथा परम पावन का तिब्बत लौटने का दिवस शीघ्र आए। 

सिक्किम के पूर्व राज्यपाल, डॉ बी. पी. सिंह ने १९९० के दशक में संस्थान के साथ अपने व्यक्तिगत सहयोग की अवधि के दौरान पुरानी स्मृतियों का स्मरण किया। उन्होंने दो गुणों की सराहना की जो संस्थान के छात्रों का लक्ष्य है - सादा जीवन उच्च विचार।
 
जब अंततः परम पावन को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया, तब उन्होंने अपनी 'टूटी हुई अंग्रेजी' का प्रयोग न करने अपितु केंद्रीय तिब्बत की सुंदर बोली के प्रयोग का निश्चय किया। अनुवाद करने के लिए उन्होंने डॉ थुबतेन जिनपा से कहा।
 
"आज का दिन २०१८ का प्रथम दिन है और यद्यपि तारीख केवल एक मानवीय धारणा है पर यह हमें यह सोचने के लिए प्रेरित करती है कि हम अपने समय का उपयोग किस तरह करें। हमें नए साल की ओर नई भावनाओं से बढ़ना चाहिए न कि पहले की ही तरह हों। हमें बदलना चाहिए। एक नूतन वर्ष एक नया अवसर प्रदान करता है। इसे पहचानते हुए कि हमारी बुद्धि के कारण यह केवल मनुष्य ही कर सकते हैं। हमें परिवर्तित समय के साथ एक नई प्रतिक्रिया को लाने की आवश्यकता है।
 
"एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु, क्योंकि यह एक शिक्षण केंद्र है, वह एक ही बिंदु से चिपके न होकर इस अवसर को अपने मस्तिष्क को झकझोर करने के अवसर के रूप में लेना चाहिए। हमें विभिन्न दृष्टिकोणों को ध्यान में रखना चाहिए। हमें बुद्धि कौशल के साथ करुणाशील सौहार्दता का संयोजन करना होगा। 

"पूर्व वक्ताओं स्वयं को भावपूर्ण रूप से व्यक्त किया है अतः मेरे लिए इसमें जोड़ने के लिए बहुत कम है। और यद्यपि मैं शारीरिक रूप से यहाँ हूँ, पर मेरा मन बोधगया में है। परन्तु मैं आपको एक कहानी बताना चाहता हूँ जिसका स्मरण मुझे आज प्रातः हुआ। 

"१९५६ में, चीनी साम्यवादी दल ने एक तैयारी समिति की स्थापना की। इसके सदस्यों ने विभिन्न गांवों का दौरा किया जहाँ निवासियों ने देखा कि उन्हें विशिष्ट बिंदुओं पर ताली बजाना सीखना था। आज हमें बहुत अधिक तालियाँ बजानी पड़ी हैं। अतीत में तिब्बत में हम नकारात्मक शक्तियों को दूर करने के लिए ताली बजाते थे। मुझे याद है कि जब जर्मनों का एक छोटा समूह ल्हासा का दौरा करना चाहता था तो स्थानीय लोग इन विदेशी लोगों को अपने बीच पाकर इतने विचलित थे कि वे ताली बजाते,लेकिन जर्मनों ने सोचा कि उनका अभिनन्दन तथा स्वागत किया जा रहा था। 

"मेरे पास कहने के लिए बहुत कुछ नहीं है, हम सभी समय में यात्रा कर रहे हैं, उसके वर्षों, महीनों और दिनों के साथ। पर जब आप इस बिंदु से २०१९ के प्रारंभ में देखें तो क्या आप इस भावना से करेंगे कि आपने वर्ष का अच्छा इस्तेमाल किया अथवा क्या आपमें पछतावे की भावना होगी? बेहतर है कि आप वर्ष का उपयोग सार्थक रूप से करें ताकि जब आप मुड़ कर देखें तो यह बिना पश्चाताप के होगा पर संतुष्टि के साथ। एक अच्छा जीवन जीने का दृढ़ संकल्प बनाएँ - लहर प्रभाव का आपसे, आपके परिवार, आपके समुदाय और आपके देश में प्रसार होगा। इसी तरह सच्चा सकारात्मक परिवर्तन होता है, एक रूपांतरण जो आंतरिक रूप से प्रारंभ होता है बाहर फैलता है। धन्यवाद।"

कुलसचिव डॉ आर के उपाध्याय ने परम पावन और अन्य गणमान्य व्यक्तियों को सम्मिलित होने के लिए धन्यवाद करते हुए समारोह का समापन किया। उन्होंने समारोह को एक शुभ अवसर के रूप में वर्णित किया और ५० वर्ष पूर्व के परम पावन की मूल कल्पना की बात की। उन्होंने सुझाया कि इसे पूरा करने का प्रयास करते हुए और परम पावन की शांति और करुणा की संदेश को प्रसारित करने में विश्व के लिए आशा है।
 
परम पावन ने वाराणसी से गया की उड़ान भरने की योजना बनाई थी, परन्तु धुँध के कारण उन्हें गाड़ी से जाना पड़ा। वह अंधेरा होने के बाद बोधगया पहुँचे, जहां सैकड़ों लोग उनका अभिनन्दन करने एकत्रित हुए थे और उन्होंने तत्काल ही विश्राम हेतु दिनांत किया।

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