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बुद्धपालित की शिक्षाओं पर प्रवचन का दूसरा वर्ष - दूसरा दिन ५/सितम्बर/२०१८

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थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र, भारत, बुद्धपालितवृत्ति के इस वर्ष के पठन का दूसरा दिन थाई भिक्षुओं के स्थविरवाद परम्परा के अनुसार पालि में दस पारमियो की प्रशंसा के सस्वर पाठ से प्रारंभ हुआ। इन पारमियों में दान, सील, नेक्खम्मा, पन्ना, विरिय, खांति, सच्च, अधित्थान, मेत्त और उपेक्खा शामिल हैं। तत्पश्चात भिक्षुणियों तथा भिक्षुओं ने कोरियाई में 'हृदय सूत्र' एक लकड़ी मत्स्य घंटे 'मोक्तक', की लय पर, जो सतर्कता का प्रतीक है, के सस्वर पाठ में ३५० कोरियाई लोगों का नेतृत्व किया।

परम पावन दलाई लामा ने इस बात की सराहना करते हुए प्रारंभ किया कि इन शिक्षाओं में भाग लेने हेतु आने के लिए श्रोताओं ने कितना प्रयास किया था।  

"आज, २१वीं शताब्दी में, हमने अच्छा भौतिक व तकनीकी विकास किया है पर फिर भी धार्मिक परम्पराएँ जो कि सहस्रों वर्ष प्राचीन हैं, अभी भी हमारे साथ हैं। वे हमारे लिए सहायक हैं। उनमें से कुछ आस्था पर निर्भर हैं क्योंकि कुछ लोगों के लिए यह सबसे अधिक लाभकारी है। भारत में धार्मिक परम्पराओं ने जन्म लिया है जो कारण तथा परीक्षण पर निर्भर हैं, जिन्होंने विभिन्न दार्शनिक विचारों को जन्म दिया है। उनमें से कई, जैसे अनीश्वरवादी सांख्य, जैन और बौद्ध सत्य द्वय - सांवृतिक और परमार्थिक सत्य पर चर्चा करते हैं।  

"शमथ और विपश्यना के विकास के लिए अभ्यास दीर्घ काल से भारतीय परम्परा का अंग रहे हैं। जैसा कि अभी हमें 'हृदय सूत्र' में स्मरण कराया गया है, बुद्ध ने शून्यता की शिक्षा दी, पर उनका मंतव्य यह नहीं था कि सांवृतिक संदर्भ में वस्तुएँ अस्तित्व नहीं रखतीं। अज्ञान में पुद्गल तथा धर्म की हमारी भ्रांति सम्मिलित है। अद्भुत बुद्धि और प्रज्ञा को व्यवहृत कर बुद्ध नैरात्म्य के प्रति पूर्णतया जागरूक हो गए।

"सामान्य रूप से बौद्ध परंपरा तथा विशेषकर नालंदा परम्परा शिक्षित करती है कि कार्य कारण से प्रारंभ कर वस्तुएँ आधारभूत वास्तविकता के रूप में किस तरह अस्तित्व रखती हैं। वे इस बात का परीक्षण करते हैं कि वस्तुएँ किस रूप में अस्तित्व रखती प्रतीत होती हैं और किस तरह वह दृश्य रूप यथार्थ से मेल नहीं खाता। यह एक तर्कसंगत दृष्टिकोण है, अतः आप जितना अधिक वास्तविकता का परीक्षण करेंगे उतनी ही प्रबल आपकी समझ होगी।  

"एशिया में कई देश पारम्परिक रूप से बौद्ध हैं, पर इन दिनों हम अन्य देशों के लोगों में भी बुद्ध की शिक्षाओं में रुचि लेने लगे हैं। वैज्ञानिकों में प्रतीत्य समुत्पाद की व्याख्या को लेकर कौतूहल है। मैंने उनमें से कुछ से पूछा है कि क्या विज्ञान में एक समान सिद्धांत है। मुझे बताया गया कि वहां नहीं है, परन्तु बौद्ध दृष्टिकोण के प्रति सराहना है। अपने ‘अभिप्राय के प्रकाश' में, जे चोंखापा प्रतीत्य समुत्पाद के तीन स्तरों का वर्णन करते हैं - जो कि कार्य कारणों से संबंधित है, अंगों पर निर्भर और मात्र ज्ञापित रूप से निर्भर।  

"क्वांटम भौतिकी का दावा कि किसी का भी वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं है, चित्त मात्र परम्परा से मेल खाता है, जबकि यह कहना कि वस्तुएँ मात्र नाम या ज्ञापित रूप में अस्तित्व रखती हैं, प्रासंगिक माध्यमिका की स्थिति है। यह तर्क और तर्क पर निर्भरता के कारण ही नालंदा परम्परा के विद्वान वैज्ञानिकों के साथ उपयोगी रूप से संवाद करने में सक्षम हैं।"  

परम पावन ने कहा कि हरिभद्र ने दो प्रकार के बौद्धों का वर्णन किया है, बौद्ध जो आस्था का पालन करते हैं और वे जो प्रखर बुद्धि वाले लोग हैं जो तर्क का पालन करते हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि आध्यात्मिक अभ्यास को एक साथ रखना घर के निर्माण जैसा है - आपको दृढ़ नींव से प्रारंभ करना है। लक्ष्य निर्वाण है जिसे निरोध सत्य अथवा क्लेशों से मुक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, यद्यपि इसका अर्थ ज्ञान की सभी बाधाओं से स्वतंत्रता भी हो सकता है।  

'हृदय सूत्र' पर लौटकर, उन्होंने कहा कि जब अवलोकितेश्वर कहते हैं, "तद्यथा गते गते पारगते पारसंगते बोधि स्वाहा" (यह इस प्रकार है: आगे बढ़ें, आगे बढ़ें, उस पार बढ़ें, पूरी तरह से आगे बढ़ें, प्रबुद्धता में स्थापित हो जाएं), वह अनुयायियों को पञ्च मार्गों के माध्यम से आगे बढ़ने के लिए कह रहे हैं। परम पावन ने स्पष्ट किया कि इसका अर्थ क्या है:  

"गते गते - आगे बढ़ें - संभार और तैयारी मार्ग और शून्यता के प्रथम अनुभव की ओर संकेत है, पारगते - उस पार बढ़ें, दर्शन मार्ग की ओर संकेत करता है, शून्यता की प्रथम अंतर्दृष्टि तथा प्रथम बोधिसत्व भूमि की प्राप्ति; पारसंगते - पूरी तरह से आगे बढ़ें - ध्यान मार्ग तथा बाद की बोधिसत्व भूमियों की प्राप्ति की ओर संकेत है, जबकि बोधि स्वाहा - प्रबुद्धता में स्थापित हो जाएं - सम्यक् संबुद्धत्व की नींव रखने का संकेत है।"  

तत्पश्चात परम पावन ने अभ्यास जारी रखने में सक्षम होने के लिए नैश्रेयस या एक अच्छे पुनर्जन्म की आवश्यकता का उल्लेख किया। नागार्जुन की 'रत्नावली' में नैश्रेयस के सोलह कारण सूचीबद्ध हैं। बंद करने की तेरह गतिविधियां हैं। जिन दस अकुशल कर्मों से बचा जाना चाहिए, उनमें से तीन कायिक हैं - प्राणातिपात (हत्या) अदत्तादान (चोरी) और काममिथ्याचार (काम व्यभिचार); चार वाचिक हैं - मृषावाद (झूठ) पैशुन्यता (अलग करना), संभिन्नप्रलाप (कठोर तथा अनर्गल वार्तालाप); तथा तीन मानसिक हैं - अमिध्या (लोभ), व्यापाद (हानिकारक इरादा) तथा मिथ्या दृष्टि (गलत विचार)। तीन अतिरिक्त गतिविधियों, जिनको नियंत्रण में रखना है, में मद पान करना, गलत आजीविका और अहित करना शामिल है। अपनाई जाने वाली तीन और गतिविधियां हैं - आदर पूर्वक दान करना, श्रद्धेय लोगों का सम्मान करना और प्रेम।  

परम पावन ने आगे कहा, "अभ्यास की नींव के रूप में सदाचरण का उत्पाद करने में, आप सर्वप्रथम २४ घंटों के लिए संवर धारण करने से परिचित हो सकते हैं और बाद में जीवन भर के लिए एक प्रव्रजक के संवरों को ग्रहण कर सकते हैं। कमलशील के 'भावना क्रम' के मध्य खंड बताता है कि किस तरह एकाग्रता विकसित की जाए। यह कौसीद्य (आलस्य) और औद्धत्य (उत्तेजकता) के दोष को दर्शाता है कि वे कैसे उठते हैं और आप उन्हें किस तरह दूर कर सकते हैं। इस अभ्यास के माध्यम से आप अपने चित्त से परिचित हो जाते हैं कि वह किस तरह ध्यान के उद्देश्य पर टिकता है। परिणाम एक प्रबल चित्त है जिसे विश्लेषण में अधिक प्रभावी ढंग से नियोजित किया जा सकता है, जो विशेष अंतर्दृष्टि को जन्म देता है।  

"चूंकि अन्य सत्वों के संबंध में बोधिचित्तोत्पाद के अतिरिक्त पुण्य संभार और दुष्कर्मों को शुद्ध करने का कोई अन्य बड़ा मार्ग नहीं है, आपको यही करना है। कदमपा आचार्य बोधचित्त को विकसित करने में सभी प्रयासों को लगाने और उसे शून्यता की समझ के साथ संयोजन करने की सिफारिश करते थे। बोधिचित्त को विकसित करने की व्याख्या के लिए सबसे अच्छा ग्रंथ शांतिदेव का 'बोधिसत्वचर्यावतार' है, जिसे १९६७ में मुझे समझाया गया जिससे स्वयं के रूपांतरण में मुझे सहायता मिली। यह ग्रंथ और नागार्जुन की 'मूलमध्यम कारिका' मेरे लिए विशेष रूप से प्रभावी रही है। शांतिदेव हमारे लिए विकल्प को संक्षेप में रखते हैं:

"इस लोक में जो भी आनन्द है
वे सब अन्य लोगों की सुख की इच्छा से आते हैं,
और इस लोक में जो भी दुख है
वे सब स्व - सुख की इच्छा से आते हैं।"

एक संक्षिप्त अंतराल के दौरान प्रश्नों के उत्तर देते हुए, परम पावन ने समझाया कि सूत्रयान के निर्देशों में शिक्षाओं की सामान्य संरचना शामिल है जबकि तंत्र के अभ्यास में विशिष्ट अनुयायियों के लिए विशेष निर्देश शामिल हैं। यह पूछे जाने पर कि किस तरह अभ्यास किया जाए उन्होंने जो पहले कहा था उसे दोहराया कि शून्यता की समझ को बोधिचित्त के साथ संयोजित किया जाए। उन्होंने संक्षेप में चेतना के विभिन्न स्तरों की भी बात की जो हमारे साधारण जाग्रत अवस्था की चेतना से प्रारंभ होती है, सूक्ष्मतर स्वप्नावस्था, और भी अधिक सूक्ष्म गहन निद्रा की चेतना और सूक्ष्मतम चेतना जो मृत्यु के समय प्रकट होती है।  

इसके बाद परम पावन ने 'बुद्धपालितवृत्ति' में प्रस्तुत जटिल चर्चाओं का पाठ पुनः प्रारंभ किया, जो अध्याय ७ के इस खंड में धर्म के उद्भव, सहनशक्ति और निरोध और उनके अस्तित्व के बारे में क्या मायने रखता है, से संबंधित है।  

कल, वह अपना पठन जारी रखेंगे और साथ ही साथ अवलोकितेश्वर अनुज्ञा भी प्रदान करेंगे।

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