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युवा तिब्बती छात्रों के लिए प्रवचन - अंतिम दिन ८/जून/२०१८

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थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा चुगलगखंग के प्रांगण से गुज़रे तो लोगों के अभिवादन का उत्तर देने हेतु यहाँ वहाँ रुके। सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण करने तथा श्वेत मंजुश्री की अनुज्ञा, जो वे प्रदान करने वाले थे, के लिए प्रारंभिक अनुष्ठान शुरू करने के बाद धर्मशाला बौद्ध अध्ययन समूह, जिनके कई वयोवृद्ध पुरुष व महिलाओं ने अक्या योंगज़िन के 'ज्ञान समुच्चय' का सहोत्साह पाठ किया। तत्पश्चात तिब्बतेन ट्रांसिट विद्यालय, शेरब गछेल लोबलिंग के छात्रों ने शास्त्रार्थ प्रस्तुत किया, जो कर्म के परिवर्तन और कुशल व अकुशल कर्मों को पारिभाषित करने वाला क्या है, पर केंद्रित था। उन्होंने इस पर प्रश्न प्रारंभ ही किया था कि आत्म दाह को किस तरह देखा जाए कि उनकी प्रस्तुति को समाप्त कर दिया गया।

परम पावन ने तुरंत इस बिंदु को उठाया: "जो ग्रंथ हम पढ़ रहे हैं उसमें यह विषय उठाया गया था, कि जहाँ यह करुणा से प्रेरित हो और दूसरों के कल्याण के लिए हो, बुद्ध ने ऐसे कर्म करने की अनुमति दी है जिन पर अन्यथा प्रतिबंध है। अतः मैं नहीं जानता कि क्या हम कह सकते हैं कि आत्म दाह कुशल कर्म है अथवा नहीं।

"हम 'बोधिसत्वचर्यावतार' का पाठ जारी रखेंगे। हम में से कोई भी दुःख नहीं चाहता, हम सभी सुख की इच्छा रखते हैं और फिर भी पाठ कहता है:

"दुःख से बचने की इच्छा होने पर भी,
सत्व सीधे दुःख की ओर दौड़ते हैं।
सुख की कामना होने पर भी अज्ञानवश
अपनी सुख को इस तरह नष्ट करते हैं, मानो वह शत्रु हो।

"पीड़ा व आनन्द का हमारा अनुभव मानसिक और शारीरिक हो सकता है, पर फिर भी चित्त का प्रभाव बहुत सशक्त है। एक बार जब मैं बोधगया की तीर्थ यात्रा पर था और पीड़ाजनक गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल शिकायत से बीमार पड़ गया। पटना में उपचार करने के लिए जाते हुए मैंने सड़क के किनारे दुर्बल बच्चों को देखा और एक स्थान पर एक उलझे हुए बालों वाले वृद्ध आदमी को बिस्तर पर अकेला लेटा देखा जिसकी देखभाल करने वाला कोई न था। उनकी हालत ने मुझे इतनी चिंता से भर दिया कि मेरी अपनी पीड़ा कम हो गई।

"मैंने कहीं और देखा है कि भौतिक सुविधाएँ कितनी ही उन्नत क्यों न हो लोग फिर भी दुखी हों सकते हैं। बौद्ध धर्म सहित प्राचीन भारतीय परंपराओं ने पाया है कि ये क्लेश हैं जो हमारे चित्त की शांति को विचलित करते हैं। यही कारण है कि क्लेशों को हानिकारक माना जाता है, फिर भी इनसे निपटने के लिए उपायों को विकसित किया जा सकता है। शांतिदेव स्पष्ट करते हैं कि सुख की इच्छा रखने के बावजूद, लोग दुःख की ओर दौड़ते हैं।

"क्लेशों से निपटने के लिए में हमें अपनी बुद्धि और भाषा के माध्यम से सम्प्रेषण करने की हमारी क्षमता का उपयोग करने की आवश्यकता है।

"दुःख का मूल आत्म - पोषण व्यवहार तथा स्वतंत्र अस्तित्व की हमारी भ्रांत धारणा से प्रेरित होता है। जब तक वे हमारे भीतर हैं तब तक ये कठिनाइयाँ उत्पन्न करेगी। इसी कारण हमें आत्म - पोषण की बुराइयों तथा दूसरे के प्रति चिंता के लाभ की पहचान करने की आवश्यकता है। हमारे जीवन के प्रारंभ में, हमारी मां हमें जन्म देती हैं और हमें अपनी देखभाल से पोषित करती हैं। जब हम बड़े हो जाते हैं, तो स्वयं को स्व - सीमित करना हमें असहज बना देता है। हम दूसरों के साथ होकर और अधिक खुश होते हैं, यही कारण है कि सभी धार्मिक परम्पराएं प्रेम व करुणा के महत्व पर जोर देती हैं।"

परम पावन ने अध्याय आठ के आधे भाग से 'बोधिसत्वचर्यावतार' का पाठ शुरू किया। परात्मसमता के संदर्भ में, उन्होंने निम्नलिखित छंद उद्धृत किया:

इस लोक में जो भी आनन्द है
वे सब अन्य लोगों की सुख की इच्छा से आते हैं,
और इस लोक में जो भी दुख है
वे सब स्व - सुख की इच्छा से आते हैं।

अध्याय आठ पूरा करने के उपरांत परम पावन अध्याय नौ प्रज्ञा - को संदर्भ में रखा। इस विषय को पूरी तरह से समझने के लिए उन्होंने नागार्जुन की 'मूलमध्यमकारिका' और चंद्रकीर्ति और भवविवेक के भाष्यों को पढ़ने का सुझाव दिया। उन्होंने टिप्पणी की, कि प्रथम दो छंद अध्याय की दिशा को इंगित करते हैं:

इन सभी अंगों को
मुनि ने प्रज्ञा हेतु कहा
अतः जो दुःख का शमन करना चाहते हैं उन्हें प्रज्ञा का उत्पाद करना चाहिए
सांवृतिक व परमार्थिक इन दोनों को सत्य द्वय माना जाता है परमार्थिक बुद्धि का विषय नहीं है बुद्धि को सांवृतिक कहा जाता है
उन्होंने आगे सुझाया कि छात्र मूलमध्यमकारिका के अध्याय २४ से दो और अध्याय १८ से एक श्लोक को कंठस्थ कर लें।

जो प्रतीत्य समुत्पाद है,
वह शून्यता के रूप में व्याख्यायित होता है।
वह आश्रित होकर ज्ञापित है, वह मध्यमा प्रतिपत् है।।  
ऐसे कोई धर्म अस्तित्व नहीं रखता
जो प्रतीत्य समुत्पादित न हो अतः ऐसा कोई धर्म नहीं जो शून्यता न हो।

कर्म और क्लेशों के क्षय में मोक्ष है;
कर्म और क्लेश विकल्प से आते हैं,
विकल्प मानसिक प्रपञ्च से आते हैं,
शून्यता में प्रपञ्च का अंत होता है।

ग्रंथ का पाठ करते हुए, उन्होंने चार स्मृत्युपस्थान के परिचय के लिए ध्यान आकर्षित किया, काय स्मृत्युपस्थान, वेदना, चित्त और धर्म।

एक बार जब उन्होंने अध्याय नौ का पाठ पूरा कर लिया, तो परम पावन श्वेत मंजुश्री अनुज्ञा की ओर मुड़े जो रिनजुंग शत संग्रह में आता है। उन्होंने समझाया कि विशेष रूप से प्रज्ञा को समझने के लिए विश्लेषण की आवश्यकता होती है और इसके लिए मंजुश्री पर निर्भर रहना उपयोगी होता है। उन्होंने टिप्पणी की, कि प्रज्ञा की सहायता के अतिरिक्त श्वेत मंजुश्री करुणा के गुणों का साकार है। अनुष्ठान के अंग के रूप में परम पावन ने सभा का बोधिचित्तोत्पाद में नेतृत्व किया। समापन में, उन्होंने सभी से 'बोधिसत्वचर्यावतार' के अध्याय १० के पाठ में सम्मिलित होने के लिए कहा, जो कि एक दीर्घ परिणामना है।

खुनु लामा रिनपोछे के 'रत्न दीप: बोधिचित्त की स्तुति' जो वे पढ़ना चाह रहे थे, परम पावन ने सुझाया कि चूंकि इस ग्रंथ को भोट भाषा में उपलब्ध कराया गया था, लोगों को जब भी समय मिले, वे इसे स्वयं पढ़ सकते हैं। उन्होंने टिप्पणी की, कि यह रचना खुनु लामा रिनपोछे की थी, प्रत्येक दिन एक छंद लिखकर, लगभग उस समय जब परम पावन ने तिब्बत छोड़ा था।

श्रोताओं में थाई भिक्षुओं को ध्यान में रखते हुए कि वे मध्याह्न से पूर्व अपना भोजन प्रारंभ करें, परम पावन ने मंत्राचार्य को निर्देशित किया वे अंतिम प्रार्थनाओं को 'सत्य शब्द प्रणिधान’ के पाठ तक सीमित रखें। इसके बाद उन्होंने मंदिर से प्रस्थान किया तथा सदैव की तरह मुस्कुराते हुए लोगों के साथ बातचीत करते अपने आवास के द्वार तक पैदल गए।

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