परम पावन 14 वें दलाई लामा
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कैथोलिक विद्यालयों के अखिल भारतीय संघ के 52वां सम्मेलन में परमपावन का सम्बोधन ३०/अगस्त/२०१९

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मैंगलुरु, कर्नाटक, भारत – आज सुबह यहां मैंगलुरु में परमपावन दलाई लामा ने अध्ययन तथा प्रशिक्षण ले रहे 250 तिब्बती युवाओं से मुलाकात की । परमपावन ने सत्तर के दशक में बीजिंग में आयोजित एक प्रदर्शनी का स्मरण किया जिसमें तिब्बत को लम्बे समय से चीन का हिस्सा बताया गया था । उस प्रदर्शनी में तिब्बत के राजा सोङच़ेन गाम्पो का चीनी राजकुमारी के साथ शादी तथा चंगेस खान ने डोगोन छोज्ञाल फागपा को तिब्बत का दायित्व सौंपना दर्शाया गया था । परमपावन ने कहा कि उन्हें जानकारी दी गयी है कि ताङ राजवंश के दस्तावेज़ों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है जिसमें तिब्बत को चीन का हिस्सा बताया गया हो ।

“चीनी राजकुमारी जिन्होंने तिब्बत के राजा सोङच़ेन गाम्पो के साथ शादी की थी, उन्होंने अपने साथ बुद्ध के एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मूर्ति उपहार स्वरूप लायी थी । मैंने जब चीन की पूर्व राजधानी शियान का दौरा किया था तब मुझे उस खाली स्थान को दिखाया था जहां पर उस मूर्ति को रखा जाता था । तिब्बत और चीन का सम्बन्ध अच्छे थे । हालांकि, सोङच़ेन गाम्पो ने चीनी लिपी का अनुसरण करने के बजाय भारतीय देवनागरी लिपी को चयन किया ।”

“बाद में, हालांकि ठ्रीसोङ देच़ेन की माँ चीनी थी, फिर भी उन्होंने पुनः भारत से आचार्य शान्तरक्षित और गुरु पद्मसम्भव को तिब्बत में आमंत्रित किया । आचार्य शान्तरक्षित, गुरु पद्मसम्भव और राजा ठ्रीसोङ देच़ेन – इन तीनों ने तिब्बत में बौद्धधर्म की स्थापना की । आचार्य शान्तरक्षित महान विद्वान थे और तिब्बत के लोगों ने उनके द्वारा स्थापित श्रवण, चिंतन एवं भावना द्वारा अध्ययन-अध्यापन करने की शैली को आज तक संजोये रखा है । हम केवल श्रद्धा मात्र से नहीं बल्कि तर्क-वितर्क द्वारा अध्ययन करते हैं । शास्त्रों में जो कहा गया है उसको तत्काल स्वीकारने की अपेक्षा हम उस विषय का गहन विश्लेषण करते हैं ।”

“बुद्ध ने वाराणसी में प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन में चार आर्यसत्यों और राजगीर में द्वितीय धर्मचक्र प्रवर्तन किया जिसमें ‘हृदय सूत्र’ की देशना की, जो एक प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित था । मैंने एक बार थाई पाली-परम्परा के विद्वानों से पूछा था कि क्या वे चार आर्यसत्यों को शास्त्रीय विश्वसनीयता पर आधारित कर उनकी व्याख्या करते हैं या फिर तर्कों के आधार पर, तो उन्होंने कहा कि वे शास्त्रीय विश्वसनीयता पर आधारित कर व्याख्या करते हैं । तब मैंने विचार किया कि हम कितना भाग्यशाली हैं कि हमारे पास आचार्य दिग्नाग और धर्मकीर्ति के शास्त्रों का अध्ययन करने का अवसर है जो तर्क और हेतुओं को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करते हैं ।”

परमपावन ने पाली और संस्कृत परम्पराओं के बीच विश्लेषण करने की इन भिन्न शैलियों के बारे में बताने के बाद कहा कि ये दोनों परम्पराएं विनय पिटक में बताये गये शील-पालन में एक समान हैं । उन्होंने कहा कि एक बार बर्मा के दो भिक्षु विश्व धर्मसभा के दौरान मेलबर्न, ऑस्ट्रेलिया में उनसे मिलने आये और उनसे कहा कि वे यह देखते हुये हैरान हैं कि तिब्बती भिक्षु भी उनकी तरह विनय के शीलों का पालन करते हैं ।

परमपावन ने तिब्बती युवाओं से कहा कि वे कुछ वर्ष पूर्व से एक ऐसी योजना पर कार्य कर रहे हैं जो कांग्युर और तांग्युर के विषयों को पुनःवर्गीकृत कर उन्हें बौद्ध विज्ञान, दर्शन और धर्म के विषयों के अन्तर्गत रखकर संकलित ग्रन्थों का प्रकाशन करना है । विद्वानों द्वारा संकलित बौद्ध-विज्ञान से सम्बन्धित एक ग्रन्थ का एक भाग पूर्ण हो चुका है, जो विशेष रूप से चित्त से सम्बन्धित विषयों पर है । इस ग्रन्थ को चीनी, रूसी, हिन्दी, मंगोलियायी, जापानी, और अंग्रेज़ी आदि भाषाओं में अनुवाद किया गया है । उन्होंने कहा कि उन्हें सूचना मिली है कि चीन के विश्वविद्यालयों में कार्यरत लोग इन ग्रन्थों का लाभ ले रहे हैं ।

“यदि हम बोधिचित्त का अभ्यास करेंगे तो निश्चित ही हम सुखी जीवन जियेंगे । याद रखें कि तिब्बत आर्यअवलोकितेश्वर की भूमि है और वे इस हिमालय के संरक्षक देव हैं । चीन ने तिब्बती परम्परा को नष्ट करने का भरसक प्रयास किया लेकिन वे सफल नहीं हो पाये । चीन बन्दुक के बल पर आश्रित है लेकिन हम सत्य के बल पर चल रहे हैं । चीन में परिस्थितियां बदल रही हैं और वहां की पार्टी को अपना नियंत्रण खोने का डर सता रहा है । हम तिब्बत की आज़ादी के लिए नहीं लड़ रहे हैं अपितु तिब्बती सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने के लिए हमारा पूरज़ोर कोशिश है ।”

उसके बाद परमपावन होटल के कुछ ही दूरी पर स्थित फादर मुलर सभागार में आयोजित कैथोलिक विद्यालयों के अखिल भारतीय संघ के 52वां सम्मेलन में पहुंचे जहां पर डॉ. ब्रो. थोमस थानीकल और फादर जिम्मी जेम्स ने उनका स्वागत किया । लॉबी में ईसाई ननों ने उन्हें आरती अर्पण किया । धर्मशाला के सिद्धपुर में स्थित दा सेकर्ड हार्ट स्कूल की प्रधान-अध्यापिका ने उपस्थित श्रोताओं को परमपावन का संक्षिप्त जीवन वृत्तांत बताया । उन्होंने परमपावन की सुक्तियों में से एक ‘पर सेवा ही परम आनन्द है’ का उद्धरण किया । उन्होंने दो कैथोलिक पादरियों को परमपावन को अंगवस्त्र और फूलों का गुलदस्ता भेंट कर उनका सम्मान करने के लिए मंच पर बुलाया ।

“आज मैं यहां आकर बहुत प्रसन्न हूँ । जब मैं बुज़ुर्ग लोगों से मिलता हूँ तब सोचता हूँ कि हममें से सबसे पहले कौन जायेगा, लेकिन युवाओं से मिलने पर मैं स्वयं को युवा अनुभव करता हूँ । वास्तव में, मैं 20वीं शताब्दी का पीढ़ी हूँ, जबकी आप लोगों में से अधिकतर 21वीं सदी के हैं । जो बीत गया, सो बीत गया, हम उसे बदल नहीं सकते हैं, लेकिन हम उससे सीख ले सकते हैं । मानव समाज का भविष्य हमारे हाथों में है । आज दुनियां में जिन समस्याओं से हमारा सामना हो रहा है उन्हें देखिये । गरीब और अमीर के बीच की खाई बढ़ती जा रही है तथा अमीर देशों के लोग मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं ।”

“आज वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मनुष्य का बुनियादी स्वभाव दयालु है, जो हमें समझ भी आता है, क्योंकि हम एक सामाजिक प्राणी हैं । एक व्यक्ति विशेष का जीवित रहना और उसका सुख-समृद्धि दूसरों पर निर्भर है । नन्हे बच्चे भिन्न धर्म और भिन्न देश की परवाह नहीं करते हैं, वे एक दूसरे से मानवीय स्तर पर संवाद करते हैं । हमारे जन्म के बाद हम अपनी मां की ममता पर निर्भर रहते हैं जो हमें सुरक्षा भाव प्रदान करती है और यह भाव जीवन पर्यन्त रहती है ।”

“यहां मैंगलुरु के लोगों का भविष्य भारत के अन्य क्षेत्रों में रह रहे लोगों पर निर्भर है । भारत का भविष्य एशिया के अन्य देशों पर निर्भर है । वास्तव में आज जो सात अरब लोग जीवित हैं वे सब एक समुदाय हैं । यदि हम इस बात को समझेंगे तो विश्व में युद्ध और एक-दूसरे की हत्याओं का कोई जगह नहीं बचेगी । आजकल लोगों का 'वे' और 'हम' के ऊपर बहुत ही ज़्यादा ज़ोर रहता है, जो सारी लड़ाई-झगड़ों का स्रोत है । इसलिए, हमारे अधिकतर समस्याएं हमारी द्वारा बनायी गयी हैं । हमने बुनियादी मानवीय गुण दया और करुणा की उपेक्षा की है । ऐसी शिक्षा जो भौतिक मूल्यों पर केंन्द्रित हैं वे समस्याओं को बढ़ावा देती हैं ।”

“बच्चे विद्यालयों में जाने के बाद धर्म, जाती और राष्ट्रीयता के भेदभावों को सीखते हैं, जो 'वे' और 'हम' की भेदभावपूर्ण विचार की ओर अग्रसर करता है । शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो केवल मानव मस्तिष्क को ही शिक्षित न करें बल्कि आत्मीय भावना के बारे में भी शिक्षित कर सके । सभी धर्म प्रेम और करुणा का सन्देश देते हैं, वे विभिन्न दार्शनिक एवं जीवन शैली को अपनाये हुये हैं, लेकिन सब प्रेम, धैर्य और संतुष्टि के लिए प्रेरित करते हैं ।”

“एक मनुष्य होने के नाते मैं इस विचार को दूसरों के साथ साझा करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ कि हम सब एक सामाजिक प्राणी हैं और इसलिए, चाहे हम धर्म में विश्वास रखते हों या न हों, हमें दूसरों की भलाई के लिए फिक्रमंद होनी चाहिए । इसी तरह मैं विभिन्न धर्मों के मध्य धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए भी प्रतिबद्ध हूँ । आप सब भाई-बहनें सृष्टिकर्ता ईश्वर में विश्वास रखते हैं- यह अद्भुत है । कोई व्यक्ति यदि सभी मनुष्यों को ईश्वर के बच्चों के रूप में देखता है तो वह कैसे उन्हें कष्ट पहूंचा सकता है? इसी तरह जो अनिश्वरवादी हैं, जैसाकि जैन, बौद्ध और कुछ सांख्य सिद्धान्तवादी- अपने कर्म-बल पर विश्वास करते हैं- यदि आप अच्छा कर्म करोगे तो अच्छा फल मिलेगा ।”

“हमारे व्यक्तिगत मान्यताएं जो भी हो, भारत एक ऐसा मिसाल है जो इस बात की पुष्टि करती है कि धार्मिक सद्भाव सम्भव है । दुनिया की सभी धार्मिक परम्पराएं यहां विकसित हुयी हैं । वे एक-दूसरे का सम्मान करते हैं और और एक-दूसरे से सीखते हैं । कई वर्ष पहले मैं थाईलेंड़ के संघराज से मिला जो मठीय समुदाय का नेतृत्व करते हैं । उनसे मैंने कहा ईसाई भाई और बहनें सक्रीय एवं व्यापक रूप से स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए कार्य करते हैं, हम बौद्धों को भी उनका अनुसरण करना चाहिए । उन्होंने उत्तर दिया कि बौद्ध भिक्षुओं को एकांतवास में रहना ज़्यादा उचित होगा ।”  

प्रश्नकाल में जब परमपावन से शाकाहारी के बारे में प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने कहा कि लोगों को शाकाहारी भोजन को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जो हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है । जो कोई भी धर्म के नाम पर किसी की हत्या करते हैं उन्हें उस धर्म का सच्ची अनुयायी नहीं कहा जा सकता । धर्म का मुख्य उद्देश्य सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और करुणा का व्यवहार करना है ।

एक छात्र जिनका पिता बौद्ध और माँ कैथोलिक है, उन्होंने यह जानना चाहा कि करुणा और सत्य में कौन सा अधिक महत्त्वपूर्ण है । परमपावन ने कहा कि करुणा महत्त्वपूर्ण है, और इसके अभ्यास के लिए आपको बौद्ध या कैथोलिक होने की ज़रुरत नहीं है । इस जीवन में करुणा का अभ्यास करना ही होगा जिससे हमारा जीवन सार्थक बनेगा- यही सबसे ज़्यादा आवश्यक है ।

अन्त में, धन्यवाद ज्ञापन के बाद परमपावन मंच के सामने आकर सभी श्रोताओं की ओर हाथ हिलाकर अभिवादन किया । होटल लौटने से पूर्व परमपावन ने कैथोलिक विद्यालयों के अखिल भारतीय संघ के सदस्यों के साथ दोपहर का भोजन किया ।

कल वे धर्मशाला जाने के लिए दिल्ली रवाना होंगे ।

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