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तिब्बती युवाओं के लिए प्रवचन ३/जून/२०१९

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थेगछेन छोएलिङ, धर्मशाला, हि. प्र. – आज सुबह जब परमपावन अपने निवास स्थान से मुख्य तिब्बती मन्दिर के लिए पधार रहे थे तब मौसम गर्म और नमीयुक्त था । अनुमानित तौर पर 8000 प्रतिभागी सदस्यगण जिनमें 400 तिब्बती बाल ग्राम (टी.सी.वी) के कक्षा 9 से 12वीं तक के छात्र और 800 तिब्बती कॉलेज के छात्रगण मन्दिर के भीतर तथा उसके प्रांगण में उपस्थित थे ।

वर्ष 2007 में प्रारम्भ किये गये परम्परा का सन्दर्भ देते हुये परमपावन ने लोगों को बताया कि आज उनका मुख्य उद्देश्य तिब्बती युवाओं को ज्ञालसे थोगमेद ज़ाङपो द्वारा विरचित बोधिसत्वों के सैंतीस अभ्यास  ग्रन्थ को पढ़ाना है ।

“आपके बीच यहां भारत में पैदा हुये अनेक छात्र होंगे, लेकिन आप वंश-परम्परा से तिब्बती हैं और ऐसे ही मृत्यु तक हम एक तिब्बती रहेंगे । तिब्बती लोगों की उत्पत्ति के बारे में मिथक हैं जिन पर मैं अधिक ध्यान नहीं देता हूँ । हालांकि पुरातात्विक साक्ष्यों से यह सुनिश्चित होता है कि लोग तिब्बत में 30-40,000 वर्षों से रह रहे हैं । तथापि हममें जो विशेषता है वह है हमारा धर्म और संस्कृति ।  तिब्बत के राजा सोङच़ेन गाम्पो ने 7वीं शताब्दी में तिब्बती लिपि के निर्माण का निर्देश दिया था ।  यह भारतीय वर्णमाला के स्वर और व्यञ्जन पर आधारित था । इसलिए, हालांकि तिब्बती बोलचाल की भाषा चीनी और भारतीय दोनों भाषाओं से अलग है, हमारे लेखन का प्रारूप भारतीय है ।”

“राजा ठिसोङ देच़ेन ने 8वीं शताब्दी में भारतीय आचार्य शान्तरक्षित को तिब्बत में आमन्त्रित किया था ।  उन्होंने सलाह दी थी कि चूंकि हमारे पास अपनी भाषा और लेखन है, इसलिए हमें संस्कृत पर निर्भर न रहकर हमें तिब्बती भाषा में ही बौद्धधर्म का अध्ययन करना चाहिए । यह कहा जाता है कि अपनी बढ़ती आयु के बावजूद आचार्य शान्तरक्षित ने कुछ तिब्बती सीखी थी । उन्होंने सुझाव दिया था कि जितना हो सके भारतीय बौद्ध साहित्यों का तिब्बती भाषा में अनुवाद करें । इसी के फलस्वरूप आज हमारे पास कंग्युर संग्रह में लगभग 100 ग्रन्थ हैं जो बुद्ध वचन हैं, जबकि तेंग्युर में बाद के भारतीय आचार्यों के 220 ग्रन्थ संग्रहित हैं । प्रत्येक ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थ की प्रामाणिकता को इंगित करते हुये,‘इस ग्रन्थ को भारतीय भाषा में ऐसा कहा जाता है और तिब्बती में ऐसा है...।’ इस प्रकार लिखा गया है ।”

“बौद्धधर्म एशिया में सूर्य की भांति उदय हुआ और सभी के लिए रोशनी लेकर आया ।  पश्चिम में ईसाई प्रबल हुआ, मध्य-पूर्व में इस्लाम, जबकि भारत में विभिन्न हिन्दू सम्प्रदाय, जैन धर्म और बौद्धधर्म का विकास हुआ ।  विश्व के सभी प्रमुख धार्मिक अनुयायी यहां पर एक साथ रहते हैं, जो भारत को अन्य देशों से विशेष बनाता है । इस तरह के वातावरण का एक उदाहरण पारसी समुदाय है जो मूल रूप से फारस से हैं । हालांकि वे कुछ ही संख्या में हैं फिर भी वे मुंबई में लाखों हिंदू और इस्लाम के अनुयायियों के मध्य बिना किसी डर के रहते हैं । भारतीय धार्मिक परम्पराएं एक-दूसरे का सम्मान करती हैं ।”

परमपावन ने तक्षशिला का उल्लेख किया जो नालन्दा विश्वविद्यालय से पहले एक प्राचीन भारतीय अध्ययन केन्द्र था । नालन्दा ने कई महान आचार्य दिये जिनकी योग्यता उनके द्वारा लिखे गए ग्रन्थों से आंका जा सकता है । मूल रूप से संस्कृत में रचित उनके ग्रन्थ आज तिब्बती में अनुदित हमारे लिए उपलब्ध हैं ।  परमपावन ने कहा कि दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में बौद्ध साहित्य पाली भाषा में संरक्षित है ।  उन्होंने स्पष्ट किया कि वे संस्कृत और पाली परम्पराओं को हीनयान और महायान की अपेक्षा संस्कृत परम्परा और पाली परम्परा के नाम से सम्बोधित करना बेहतर समझते हैं ।

परमपावन ने अवलोकन करते हुये कहा कि तथागत बुद्ध के प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन जिसमें चार आर्यसत्य, अनात्मता का स्थूल विवरण, चित्त की एकाग्रता इत्यादि सर्वप्रथम पाली भाषा में संरक्षित था । तथागत बुद्ध ने गृद्धकूट पर्वत पर विशेष बुद्धिमत्ता वाले समूह को प्रज्ञापारमिता पर आधारित दूसरा धर्मचक्र प्रवर्तन किया था ।

हृदय सूत्र में जब ‘रूप शून्य है और शून्यता रूप है’ ऐसा कहते हैं तो इसका निहितार्थ स्वाभाविक अस्तित्व की शून्यता से है । इसका तात्पर्य वस्तुओं की अभावता नहीं है बल्कि इसका अर्थ - रूप या भौतिक पदार्थ हमें दिखाई तो देते हैं लेकिन जब उनके अस्तित्व का अन्वेषण किया जाता है तो वे हमें प्राप्त नहीं होते । वस्तुएं जैसी दिखाई देती हैं वैसी उनकी अस्तित्व नहीं होती । क्वांटम भौतिक विज्ञान इसी तरह कहती है - कि कोई भी पदार्थ वस्तुनिष्ठ रूप से अस्तित्व में नहीं है । चूंकि रूप अनेक प्रत्ययों पर आश्रित होकर उत्पन्न होता है इसलिए इसका स्वाभाविक सत्ता नहीं है । परमपावन ने तीसरे धर्मचक्र प्रवर्तन को संदर्भित करते हुये कहा कि तथागत बुद्ध ने वैशाली और अन्य स्थानों पर सन्धिनिर्मोचन सूत्र का उपदेश दिया था । बुद्ध ने दूसरे धर्मचक्र प्रवर्तन में विषय की प्रभास्वरता पर देशना करने के बाद तीसरे धर्मचक्र प्रवर्तन में विषयी प्रभास्वरता को स्पष्ट किया जो एक सूक्ष्म चित्तावस्था है ।

“जब हम ध्यान साधना करते हैं तो छठे चित्त- मानसिक चेतना का उपयोग करते हैं, इन्द्रिय बुद्धि का नहीं । पश्चिमी देशों में मानसिक चेतना पर अधिक चर्चा नहीं होती है । मस्तिष्क की क्रियाशैली को इन्द्रिय अनुभूतियों के संबन्ध में व्याख्या की जाती है ।  मन को केवल मस्तिष्क के आधार पर नहीं समझाया जा सकता है । हालांकि, प्राचीन भारत में मन और भावनाओं की क्रियाशैली पर अच्छी समझ थी ।  तब सूक्ष्म मन और उसकी आभापूर्ण गुणवत्ता का ज्ञान था, साथ ही इसका अभिज्ञान था कि विनाशकारी भावनाएं स्थूल चित्तावस्था में उत्पन्न होती हैं ।”

“नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्यों का ध्यान प्रज्ञापारमिता के विस्तृत अन्वेषण पर केन्द्रित था । उदाहरण के लिए, आचार्य नागार्जुन केवल सूत्रों से सम्बन्धित व्याख्या नहीं करते थे अपितु, हेतु और कारणों पर आधारित व्याख्या करते थे । बुद्ध ने स्वयं कहा है- हे भिक्षुओं अथवा विद्वानों ! जिस प्रकार स्वर्ण को तपाकर, काटकर तथा रगड़कर उसकी परीक्षा की जाती है उसी प्रकार मेरे वचनों को भी श्रद्धा मात्र से नहीं बल्कि भलीभांति परीक्षण करने के पश्चात् ही स्वीकार करना चाहिए ।”

“तिब्बती बौद्ध परम्परा में हम शास्त्रों के 'मूल पाठ’ को याद करके अध्ययन करते हैं तथा उसका शब्दशः व्याख्या को समझने का यत्न करते हैं । उसके बाद जो हमने समझा है उसे एक दूसरे के साथ वाद-विवाद द्वारा गहराई से समझने का प्रयत्न करते हैं ।  आचार्य दिग्नाग और धर्मकीर्ति के तर्क और हेतु पर लिखे गये व्यापक ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया गया है ।  बाद में तिब्बत के विद्वान्, जैसेकि साङफू के मठादीश छापा छोएकी सेङगे (1109-69) और साक्य पंडिता ने हेतु और तर्क विषयों पर विस्तारपूर्वक अपने ग्रन्थों में लिखा है ।  तर्क और हेतु वास्तव में सहायक होते हैं, इनकी एक अनोखी विशेषता है जिसे मैं आप युवा तिब्बतियों को अवगत कराना चाहता था ।  यह कुछ ऐसा है जिस पर हमें गर्व होना चाहिए ।”

परमपावन ने ‘बोधिसत्वों के सैंतीस अभ्यास ‘ ग्रन्थ को पढ़ना आरम्भ किया । उन्होंने बुद्ध के लिए प्रयुक्त तिब्बती शब्द का शब्द-व्युपत्ति करते हुये कहा कि सभी प्रकार के दोषों का नाश कर तथा सभी पदार्थों की तथता का अवबोधन करने को ही बुद्ध कहते हैं । चैतसिक क्लेशों का कोई आधार नहीं होता है, वे अतिशयोक्ति के बल पर उत्पन्न होते हैं जबकि करुणा और धैर्य हेतुओं द्वारा पोषित हैं । इस ग्रन्थ में निहित श्लोक इस प्रकार शिक्षा दे रहे हैं- हमें धर्माभ्यास हेतु अपनी जन्मभूमि को त्यागना चाहिए तथा एकांतता को अपनाना चाहिए । बूरे संगत को त्यागने से अपने भीतर अच्छे गुणों का संचार होने लगता है । त्रिरत्न की शरण गमन करना चाहिए और उनमें से मुख्यतः हमें धर्म की शरण में जाना चाहिए जो निरोध और मार्ग की यथार्थ अनुभूति है । बुद्ध एक गुरु के समान हैं और संघ बुद्ध द्वारा उपदेशित शिक्षाओं के साधना में हमारे मित्र स्वरूप हैं । जैसे कहा भी है-

मुनिजन पापों को जल से प्रक्षालित नहीं करते हैं ।
प्राणियों के दुःखों को हाथ से दूर नहीं करते हैं ।
उनके अवबोधन को दूसरों को हस्तांतरित नहीं करते हैं ।
वे उन्हें तथता की यथार्थ ज्ञान को उद्घाटित कर मुक्त करते हैं । 
आचार्य आर्यदेव ने चतुःशतक में कहा है-
सर्वप्रथम पापों का प्रहाण करना चाहिए ।
मध्य में (स्थूल) आत्मा का खण्डन करना चाहिए ।
अन्त में सभी मिथ्या दृष्टियों का निराकरण करना चाहिए ।
जो इसको जानता है वह विद्वान् है ।     

परमपावन ने ग्रन्थ की व्याख्या करते हुये कहा “जब आकर्षित विषयों से आपका सामना होता है तो वे वर्षा ऋतु में इन्द्रधनुष के समान सुन्दर प्रतीत होते हैं लेकिन उन्हें सत्य नहीं समझना चाहिए । क्वांटम भौतिक विज्ञान यह बताता है कि जब तक अवलोकनकर्त्ता होता है तब तक अवलोकित विषय होता है । योगाचार कहते हैं कि वस्तुओं का बाह्य सत्ता नहीं है, जबकि माध्यमिक किसी भी प्रकार के विषयी अस्तित्व का खण्डन करते हैं ।”

“हमारे मन में जैसे ही राग इत्यादि क्लेश उत्पन्न होते हैं उनका तत्काल निराकरण करना चाहिए । हम जो भी करते हैं उससे पहले अपनी मनोस्थिति को जानना अत्यावश्यक है । और अन्त में हमारे द्वारा जो पुण्य कर्म किये गये हैं उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति हेतु परिणामना करनी चाहिए । बौद्धधर्म को संवृत्ति सत्य और परमार्थ सत्य के नींव पर समझना चाहिए और फिर चार आर्यसत्य इन्हें और अधिक स्पष्ट रूप से व्याख्या करता है ।”

“जैसेकि मैंने पहले कहा नालन्दा परम्परा सूर्य की भांति देदीप्यमान था । हम एक स्वतंत्र देश में रह रहे हैं, इसलिए हमारे पास अवसर है कि हम बौद्धधर्म की इस गम्भीर परम्परा को अक्षुण्ण रूप से जीवित रखें ।”

परमपावन जब मन्दिर के गलियारे से धीरे-धीरे पधार रहे थे तब चेहरों पर मुस्कान तथा दोनों हाथों को जोड़े उनकी एक झलक की प्रतीक्षा में खड़े युवा और बुजुर्ग लोगों को उन्होंने बीच-बीच में रुककर अभिवादन किया तथा उसके पश्चात् वाहन से अपने निवास स्थान लौट गये ।

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