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आचार्य नागार्जुन द्वारा विरचित रत्नावली ग्रन्थ पर प्रवचन ३/अक्तूबर/२०१९

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थेगछेन छोएलिङ, धर्मशाला, हि. प्र. –  आज सुबह परमपावन दलाई लामा जब अपने आवास से च़ुगलागखाङ, मुख्य तिब्बती मन्दिर में आ रहे थे तब बादल रहित आकाश में सूर्य अपना चमक बिखेर रहा था । मार्ग में उन्होंने मन्दिर के प्रांगण में एकत्रित जनसमूह का अभिवादन किया । उन्होंने एक छोटे से बच्चे के गाल को सहलाया तो किसी से बातचीत की और उन श्रद्धालुओं का हाथ हिलाकर अभिवादन किया जो उनके पहूंच से दूर बैठे हुये थे । मुख्य मन्दिर में पहुंचने के उपरान्त उन्होंने सिंहासन पर बैठने से पहले गादेन ठीज़ुर रिज़ोङ रिन्पोछे का अभिवादन किया । थाई भिक्षुओं ने पालि भाषा में ‘मंगल सुत्त’ का पाठ किया तथा उसके बाद चीनी भाषा में ‘हृदय सूत्र’ का पाठ हुआ ।  

आज प्रवचन के लिए मन्दिर के भीतर एवं प्रांगण में 61 देशों के श्रोताओं सहित 7500 श्रद्धालुगण उपस्थित थे । इनमें से मुख्य शिष्यों में ताइवान अन्तर्राष्ट्रीय तिब्बती बौद्ध संघ के अन्तर्गत 21 संगठनों से 1127 ताइवानी सम्मिलित हुये थे । इन इक्कीस समूहों में सबसे बड़ा समूह ‘ब्लीस और विस्डम’ नाम का समूह था जिसके 850 सदस्य उपस्थित थे । परमपावन ने प्रारम्भिक पार्थना पाठ करने के पश्चात् सभा को सम्बोधित किया-  

“आज ताइवान और अन्य क्षेत्रों के चीनी यहां धर्म प्रवचन सुनने के लिये आये हैं । हम यहां मन में परिवर्तन कैसे लाना है इसे सीखने के लिये एकत्रित हुये हैं । बौद्ध दर्शन में, विशेषकर नालन्दा परम्परा में तर्क एवं युक्तियों द्वारा मन के बारे में शिक्षा दी जाती है । ये शिक्षाएं हमें क्रोध और ईर्ष्या इत्यादि हानिकारक भावनाओं का निवारण कैसे किया जाये इसके विषय में बताते हैं ।  

“हमें यह पहचानना होगा कि वे कौन से तत्व हैं जो हमारे मन को उद्वेलित करता है तथा जिस प्रकार, जब हम बीमार पड़ते हैं तो एक उपयुक्त दवा लेते हैं, उसी प्रकार हमारे अशान्त मन को नियंत्रित करने की उपयुक्त विधि सीखनी होगी । जब हम क्रोधित होते हैं, तो हमे स्वयं से पूछना चाहिए कि क्यों । क्रोधित होने पर दूसरों को शत्रु समझने लगते हैं, परन्तु उस मनोस्थिति में भी परिवर्तन लाया जा सकता है । जो आज हमें शत्रु जैसा दिखाई देता है, वह कल हमारा मित्र बन सकता है ।  जब कोई हमारा निन्दा करता है और हम क्रोधित हो जाते हैं तो उससे हमें अपनी पीड़ा से छुटकारा नहीं मिलती है और यदि इस परिस्थिति में हम सहन करते हैं और शांत रहते हैं तो हम व्याकुल होने से बच जाते हैं । क्रोध, अहंकार और ईर्ष्या हमारे शांत मन को व्याकुल करता है । ये कलुषित भावनाएं स्वयं के स्वास्थ्य को बिगाड़ने के साथ-साथ हमारे दोस्तों को भी परेशान करते हैं ।”  

“चूंकि हम सब सुखी रहना चाहते हैं, इसलिए मन की शांति आवश्यक है । मन की शांति को बनाये रखना कोई धार्मिक चीज़ नहीं है, यह तो हमारे सुखी जीवन जीने के लिये व्यावहारिक कदम है । हम सब एक सामाजिक प्राणी हैं । सभी धर्म दया और करुणा का ज्ञान देते हैं । हमारा सुखी रहना समाज के अन्य लोगों पर निर्भर है । एक बच्चा का जब मां की ममता से पालन-पोषण होता है तो वह बड़ा होकर एक स्नेहशील युवा के रूप में उभरता है । प्राचीन काल में लोग छोटे-छोटे समूहों में अपने परिवार के साथ जीवन यापन करते थे, लेकिन आज हम एक-दूसरे पर आश्रित हैं । सभी 7 अरब लोग एक मानव परिवार के रूप में स्थित हैं । इसलिए यह आवश्यक है कि हम मानवीय एकात्म की भावना के लिये कार्य करें ।”  

“बौद्ध अनुयायी मां स्वरूप सभी प्राणियों के कल्याण के लिए सोचते हैं, लेकिन जिनका हम वास्तव में सहायता कर सकते हैं वे हैं मनुष्य, क्योंकि हम उनसे संवाद कर सकते हैं । जानवरों की सहायता कर पाना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि इनकी कोई भाषा नहीं है । यदि हमारा मन क्लिष्ट भावनाओं का दास बनकर रहता है तो उसका कोई उपयोग नहीं है, लेकिन यदि हम अपने मन में दूसरों के प्रति दया और करुणा को जागृत करते हैं तो हम सुख प्राप्त कर सकते हैं । जैसा कि आचार्य शान्तिदेव ने लिखा है-  

आज मैं सभी त्राताओं के समक्ष,
प्राणियों को, बुद्धत्व एवं सुख के मध्य (रहने के लिए),
आमन्त्रित करता हूँ, इसलिए
देव और असुर इत्यादि सभी अभिनन्दन (अनुमोदन) करें ।  

यदि हम अपने मन में बोधिचित्त की भावना को जागृत करते हैं तो सभी प्राणी हमारे मित्र बनेंगे । हम सभी को मित्रवत् देखेंगे, किसी को भी शत्रु नहीं समझेंगे । इसके विपरीत यदि हम केवल अपने लिये सोचेंगे तो सभी लोग एक खतरे की भांति प्रतीत होंगे । शास्त्रों में लिखा है कि मनुष्य जीवन मिलना अत्यन्त कठिन है और यह मूल्यवान है, क्योंकि यह हमें दूसरों तथा स्वयं के उद्देश्यों की पूर्ति करने में सक्षम बनाता है ।”  

परमपावन ने कहा कि सभी धार्मिक परम्पराएं हमें आत्मीय मनोभाव को जागृत करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं । यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म सृष्टि रचयिता पर विश्वास करते हैं और दूसरों को उस रचयिता के बच्चे तथा भाई-बहन मानते हैं । इसी तरह जो अनिश्वरवादी हैं, जैसाकि जैन, बौद्ध और कुछ सांख्य सिद्धान्तवादी सुख और दुःख को अपने कर्मों के फल स्वरूप देखते हैं । इस दृष्टिकोण को अपनाकर उन्हें अहिंसात्मक आचरण के लिए प्रोत्साहन मिलता है ।

परमपावन ने स्पष्ट किया कि तथागत बुद्ध ने लोगों को विभिन्न देशनाएं दी थी जिन्हें बाद में पालि भाषा में लेखबद्ध किया गया । इस परम्परा को श्रीलंका, बर्मा, थाईलेंड और दक्षिण एशिया के अन्य देशों ने अनुसरण किया । बाद में बुद्धवचनों को संस्कृत में लेखबद्ध किया गया जो एक अत्यन्त कुशल भाषा है । उन्होंने कहा कि चूंकि हीनयान और महायान के ये दो शब्द उच्च और लघु के भेदभाव का बोध कराते प्रतीत होते हैं, इसलिए वे इन शब्दों के बदले पालि और संस्कृत परम्परा कहकर सम्बोधित करना पसन्द करते हैं ।  

परमपावन ने कहा कि मन की शान्ति को बनाये रखने के लिये धार्मिक होना आवश्यक नहीं है, अपितु हमें व्याकुल करने वाले मनोभावों को सामना करने की विद्या अर्जित करना आवश्यक । उन्होंने कहा कि वे शैक्षणिक जगत में सामाजिक, भावनात्मक तथा नैतिक शिक्षण के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते आ रहे हैं ।  

बौद्धधर्म सत्य की खोज में अत्यन्त गम्भीर विद्याओं में से एक है और इसलिए परमपावन का विचार है कि बौद्ध अनुयायी उस ज्ञान को दूसरों की भलाई के लिये अधिकाधिक प्रयोग करें । हालांकि बौद्ध दर्शन और मनोविज्ञान को धार्मिक साहित्यों में समझाया गया है लेकिन उनका मानना है कि इन्हें एक विषयी, धर्मनिरपेक्ष शैक्षणिक ढ़ांचे में रखकर अध्ययन किया जा सकता है।

परमपावन ने उल्लेख किया कि उन्होंने बुद्धवचनों एवं भारतीय आचार्यों के ग्रन्थ, जिन्हें कांग्युर और तांग्युर के 300 पोथियों में संग्रहित किया गया है, उनके विषयों को पुनःवर्गीकृत कर उन्हें बौद्ध विज्ञान, दर्शन और धर्म के विषयों के अन्तर्गत रखकर उनका ग्रन्थों में संकलन कर प्रकाशन कार्य प्रारम्भ किया है । इनका चीनी, अंग्रेज़ी और अन्य भाषाओं में अनुवाद किया गया है । बौद्ध विज्ञान से सम्बन्धित ग्रन्थों का कार्य पूर्ण हो चुका है और अब बौद्ध दर्शन के ग्रन्थों पर कार्य किया जा रहा है ।  

परमपावन ने बौद्धधर्म के दर्शन पक्ष पर प्रवचन देते हुये कहा कि बौद्ध दर्शनवादी पुद्गल नैरात्म्य और धर्मनैरात्म्य को विभिन्न उपायों से समझाते हैं ।  

 “चित्तमात्र दर्शनवादियों के अनुसार कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जिसका बाह्य सत्ता हो । बाह्य पदार्थ के रूप में जो हमें दिखाई देते हैं वे सब हमारे चित्त के प्रतिबिम्ब मात्र हैं । वे अद्वय शून्यता का प्रतिपादन करते हैं । माध्यमिकों के अनुसार ऐसी कोई भी पदार्थ नहीं हैं जो स्वभावतः सत् हों । उनके लिये किसी भी पदार्थ का स्वतंत्र अस्तित्व सम्भव नहीं है, उनका केवल नाम मात्र का अस्तित्व होता है ।”  

 “हृदय सूत्र में शारिपुत्र ने इस प्रकार प्रश्न किया है “बोधिसत्त्व महासत्त्व आर्यावलोकितेश्वर, जो कोई कुलपुत्र अथवा कुलपुत्री प्रज्ञापारमिता के गम्भीर चर्या के चरण के इच्छा वाले हों, उन्हें कैसी शिक्षा लेनी चाहिए? ऐसा कहते ही बोधिसत्त्व महासत्त्व आर्यावलोकितेश्वर ने आयुष्मान् शारिपुत्र को ऐसा कहा- शारिपुत्र, जो कोई कुलपुत्र अथवा कुलपुत्री प्रज्ञापारमिता के गम्भीर चर्या के आचरण की इच्छा वाले हों उन्हें इस प्रकार देखना चाहिए कि वे पञ्च स्कन्ध भी स्वभाव से शून्य हैं ऐसी सम्यक् दृष्टि डालें ।” हालांकि पदार्थ अपनी ओर से ठोस, स्वतंत्र रूप से सत्तात्मक दिखाई देते हैं, लेकिन वे वास्तव में ऐसे नहीं होते हैं । रूप शून्य है- इसका अर्थ यही है कि पदार्थ इत्यादि रूप हमें जैसे दिखाई देते हैं वास्तव में उनका अस्तित्व वैसा नहीं है ।”  

 “चूंकि पदार्थ दूसरे प्रत्ययों पर आश्रित होते हैं, उनका अस्तित्व नाम मात्र होता है जिसे शब्दों द्वारा परिभाषित किया जाता है । जब हम रूप का समीक्षात्मक विश्लेषण करते हैं तो इसका स्वाभाविक सत्ता शून्य होता है । लेकिन हम जिस रूप को स्वीकारते हैं वह लौकिक व्यवस्था में स्वीकारते हैं । “रूप से अलग कोई शून्यता नहीं है तथा शून्यता से अलग कोई रूप नहीं है ।”  

 “चित्त क्षण श्रृंखला (संतति) के रूप में अस्तित्व में रहता है, चित्त के क्षण”

 “आचार्य नागार्जुन के मूलमध्यमककारिका ग्रन्थ के 26वें अध्याय में, हम किस प्रकार इस संसार में आयें हैं उसकी प्रक्रिया को समझाते हैं तथा 18वें अध्याय में अनात्मता और 24वें अध्याय में चार आर्यसत्य के बारे में बताते हैं । आचार्य बुद्धपालित एवं चन्द्रकीर्ति ने मूलमध्यमककारिका पर टीकायें लिखा है । आचार्य जे-च़ोङखापा ने इन टीकाओं तथा अन्य दूसरे टीकाओं को पढ़कर अपना एक टीका लिखा है । आचार्य च़ोङखापा ने अपनी साधना के एक पड़ाव में आर्यमञ्जुश्री से प्रश्न पूछा था और उन्होंने जे-च़ोङखापा से कहा कि उन्हें और अधिक अध्ययन और साधना की आवश्यकता है । अन्त में जब वे आचार्य बुद्धपालित के टीका को पढ़ रहे थे तब उन्हें शून्यता का सम्यक् अवबोधन हुआ ।”  

परमपावन ने कहा कि जब वे किसी को बुद्ध की मूर्ति भेंट करते हैं तो वे बुद्ध को एक विचारक गुरु के रूप में वर्णन करते हैं । बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन अत्यन्त ज़रुरी है । उन्होंने कहा कि बुद्ध की शिक्षा तिब्बत में आने से पहले चीन में आ चुका था । चीनी और तिब्बती बौद्ध दोनों नालन्दा परम्परा के अनुयायी हैं ।  

परमपावन ने रत्नावली ग्रन्थ पर प्रवचन प्रारम्भ किया तथा प्रथम परिच्छेद के सारांश में कहा कि यह परिच्छेद अभ्युदय और निःश्रेयस के बीच अन्तर को दर्शाता है । अभ्युदय में उत्पन्न होने से सुखकर होता है जबकि निःश्रेयस मुक्ति की प्राप्ति है । निःश्रेयस की प्राप्ति के लिये विश्लेषण और प्रज्ञा द्वारा चित्त परिवर्तन करना आवश्यक है । और यह केवल मनुष्य जीवन में ही फलित होता है । चित्त परिवर्तन अल्प समय में होना सम्भव नहीं है, इसलिए यदि हम इसके लिए निरन्तर प्रयास करते रहेंगे तो अपने लक्ष्य को ज़रूर प्राप्त करेंगे । जो भी आप सुनते हैं और अध्ययन करते हैं उनका बार-बार चिंतन करना चाहिए जिससे मन में एक दृढ़ निष्ठा जागृत हो । ध्यान करने से आपके ज्ञान की अनूभूति द्वारा चित्त परिवर्तन होता है ।  

परमपावन ने आज के सत्र को समाप्त करते हुये श्रोताओं से कहा कि वे प्रवचन के बाद आयोजित होने वाले पुनरावलोकन सत्र में भाग लें । उन्होंने कहा कि उस सत्र के दौरान चुपचाप न बैठकर अपने मन में जो भी शंका हो उन्हें पूछें । वे कल अपने व्याख्यान जारी रखेंगे ।

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