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रूसी बौद्ध अनुयायियों के लिए प्रवचन १०/मई/२०१९

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थेगछेन छोएलिङ, धर्मशाला, हि. प्र – आज सुबह लगभग 7600 से अधिक एक उत्सुक भीड़ मुख्य तिब्बती मंदिर में परमपावन दलाई लामा की प्रतीक्षा में थी ।  इस भीड़ में 69 देशों के लोग प्रवचन सुनने आये थे जिसमें भारत से 429, इज़राइल से 254, अमरीका से 194, ब्रिटेन से 147, जर्मनी से 137 और साथ ही रूस से 1100 का एक प्रमुख समूह शामिल था । परमपावन प्रवचन स्थल जाने के मार्ग में कई लोगों से बात करने के लिए रुके । जब वे मंदिर पहुंचे तो आसन ग्रहण करने के पूर्व उन्होंने गादेन ठीज़ुर रिज़ोङ रिन्पोछे, वर्तमान गादेन ठीपा और अन्य लोगों का अभिवादन किया । 

रूसी भाषा में 'हृदय सूत्र' के पाठ के बाद परमपावन ने उपस्थित श्रद्धालुओं को सम्बोधित करते हुये कहा “आज का प्रवचन मुख्य रूप से रूसी लोगों के लिए है, जिसमें बौद्ध गणराज्य, कलमीकिया, बुरातिया और तुवा के लोग शामिल हैं जिनका तिब्बत के साथ बहुत पुराना सम्बन्ध है ।  हमारे बीच एक विशेष सम्बन्ध है ।

“कुछ वर्ष पहले मैंने रूसी लोगों को दिल्ली में प्रवचन दिया था तब कुछ लोगों ने मुझे बताया कि उन्हें दिल्ली आने का खर्च व्यय करने में कठिनाई होती है । इसलिए हमने रीगा, लाटविया में प्रवचनों की व्यवस्था की थी, जहां उनके लिए पहुंचना आसान था । अब इतनी दूर यात्रा करना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो गया है, इसलिए हमने फिर से दिल्ली में प्रवचन का आयोजन करने के लिए विचार किया था । हालांकि, दिल्ली काफी गर्म है और वायु भी प्रदूषित है, इसलिए हम एक बार यहाँ धर्मशाला में हैं, जहाँ मुझे उम्मीद है कि आप स्वच्छ हवा और सुखद मौसम का आनंद लेंगे ।”

“एक सूत्र में तथागत बुद्ध ने भविष्यवाणी करते हुये कहा है कि बुद्धशासन उत्तर से उत्तर की ओर प्रसारित होगा । सबसे पहले यह भारत से तिब्बत और वहाँ से मंगोलिया और रूस के बौद्ध गणराज्य तक फैला । तिब्बत के राजा सोंगच़न गाम्पो ने चीनी राजकुमारी से शादी की थी और जब राजकुमारी जोवो-बुद्ध की प्रतिमा साथ लेकर आयी थी तब सर्वप्रथम चीन से तिब्बत में बौद्धधर्म का परिचय हुआ था । बाद में राजा ठीसोङ देच़ेन ने आचार्य शांतरक्षित को तिब्बत में आमन्त्रित किया और आचार्य ने भारत की नालंदा परम्परा को तिब्बत में स्थापित किया ।”

“भारत में पाली परम्परा और संस्कृत परम्परा के रूप में बौद्धधर्म की दो मुख्य धाराएँ उभर कर आयी हैं । इन दोनों में समान रूप से विनयशास्त्र में निहित नैतिक मठानुशासन का प्रचलन है । नालन्दा परम्परा संस्कृत परम्परा के अन्तर्गत विकसित हुआ है जिसमें कारण और तर्क के आधार पर दर्शन का अध्ययन और मन को अनुशासित करने पर बल दिया जाता है । ऐसी भावनाएँ, जो विनाशकारी हैं उन्हें तर्क के आधार पर अनुशासित किया जाता है, इसमें भी विशेष रूप से पुद्गल नैरात्म्य और धर्म नैरात्म्य को समझने वाली प्रज्ञा द्वारा उसका निराकरण किया जाता है ।”

“अन्ततोगत्वा माध्यमिक सिद्धांतवादी यह प्रतिपादित करते हैं कि सभी पदार्थ आरोपित मात्र हैं, इस सिद्धांत और पदार्थों की वस्तुस्थिति जैसी हमें दिखाई देती है वैसी नहीं होती है, का क्वांटम भौतिकी अवलोकन के साथ तुलनीय है जिसका सिद्धान्त है कि विषय की ओर से कुछ भी अस्तित्व में नहीं है ।”

“जब मैं गेशे परीक्षा की तैयारी कर रहा था तब मैंने नालन्दा विद्वानों के अनेक ग्रन्थों को पढ़ा । मेरे वाद-विवाद के सहयोगी आन्तरिक मंगोलिया के विद्वान ङोडुब छ़ोगञी थे । उन्होंने मुझे माध्यमिक दर्शन में रुचि लेने के लिए अभिप्रेरित किया । इन दिनों दक्षिण भारत के महामठों में कई सौ मंगोलियन बौद्ध दर्शन का अध्ययन कर रहे हैं ।”

“नालन्दा परम्परा तथागत बुद्ध के कथनानुसार तर्क का व्यापक प्रयोग करते हैं । जैसे कि बुद्ध ने कहा है- ‘हे भिक्षुओं अथवा विद्वानों ! जिस प्रकार स्वर्ण को तपाकर, काटकर तथा रगड़कर उसकी परीक्षा की जाती है उसी प्रकार मेरे वचनों को भी श्रद्धा मात्र से नहीं बल्कि भलीभांति परीक्षण करने के पश्चात् ही स्वीकार करना चाहिए ।’ नालन्दा के आचार्यों नें बुद्ध वचनों को भी कसौटी पर कसने के लिए तार्किक जांच के विषय में रखा । जब वे कारण और परीक्षणों से संतुष्ट होते थे तभी वे बुद्ध वचनों को स्वीकारते थे । बुद्ध एकमात्र ऐसे धार्मिक शिक्षक हैं जिन्होंने अपने अनुयायियों को उनके वचनों पर संदेह करने के लिए प्रोत्साहित किया । आज नालन्दा परम्परा का यह संदेहवाद-विधि वैज्ञानिकों को खूब आकर्षित कर रहा है ।”

“आज जब सूचनाओं का आदान-प्रदान इतना आसान हो गया है, दुनिया के कई हिस्सों में अधिक से अधिक लोग बौद्धधर्म का अध्ययन कर रहे हैं । जिनमें यूरोपीय रूस के साथ-साथ पारम्परिक बौद्ध रूसी भी रुचि ले रहे हैं । मन के विषय को जानने में रूसी वैज्ञानिक भी काफी रुचि ले रहे हैं ।”

“हमें 21वीं सदी के बौद्ध बनने का प्रयास करना चाहिए । त्रिरत्न को अच्छी तरह से समझे बिना उनके शरण में जाने मात्र से पर्याप्त नहीं है । बौद्धधर्म में अद्वितीय दार्शनिक दृष्टिकोण हैं, साथ ही साथ यह अहिंसा के महत्व को अपने आचरण में अन्तर्निविष्ट करना भी सिखाता है । यदि करुणा से प्रेरित अहिंसा हमारे जीवन का एक हिस्सा बन जाती है तो दुनिया में संघर्ष कम होगा और हम अमीर और गरीब के बीच की खाई जैसी समस्याओं का समाधान भलीभांती कर पायेंगे ।”

परमपावन ने दृढ़तापूर्वक कहा कि नालन्दा के महान आचार्यों के शास्त्रीय रचनाओं तथा उन पर तिब्बत तथा मंगोलिया के विद्वानों के टीकाओं मे निहित तत्व ज्ञान को आज के शैक्षणिक जगत में पाठ्यक्रम के रूप में शामिल कर अध्ययन करने की आवश्यकता है ।

“बुद्ध ने प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन में चार आर्यसत्यों और द्वितीय में प्रज्ञापारमिता की देशना की थी । उत्तरतन्त्र ग्रन्थ तथागतगर्भ सूत्र से सम्बन्धित है जिसे बुद्ध ने तृतीय धर्मचक्र प्रवर्तन में देशना की थी । तथागतगर्भ सूत्र चित्त के विषयगत प्रभास्वर पर बल देती है । हमें इन तीन धर्म प्रवर्तनों के माध्यम से मार्ग में किस प्रकार अग्रसर होना इसका गहन अध्ययन करने की आवश्यता है ।”

“ऐसा कहा जाता है कि तथागत बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति के तुरन्त बाद इस वाक्य को कहा था- ‘गम्भीर एवं शांत, सभी प्रपञ्चों से रहित, असंस्कृत प्रभास्वर, मैंने अमृत रूपी धर्म का अधिगम किया है । यदि मैं इस धर्म की देशना करता हूँ तो कोई भी इसे समझ नहीं पायेगा । इसलिए मैं यहीं इस वन में मौन धारण किये रहता हूँ ।’ हम इसे बुद्ध के तीन धर्म प्रवर्तनों के सन्दर्भ में समझ सकते हैं- गम्भीर एवं शांत प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए निर्दिष्ट है जबकी सभी प्रपञ्चों से रहित द्वितीय धर्मचक्र प्रवर्तन के विषय से सम्बन्धित है एवं असंस्कृत प्रभास्वर तृतीय धर्मचक्र प्रवर्तन से सम्बन्धित है ।”

“चित्त की प्रभास्वरता और असंस्कृत प्रभास्वर किस प्रकार अनादिकाल से अस्तित्व में हैं उस पर तथागतगर्भ सूत्र प्रकाश डालता है । यह हमेशा से अस्तित्व में है । इसे गुह्यसमाजतन्त्र तथा सातवें दलाई लामा द्वारा रचित महापरिनिर्वाण सूत्र के टीका में भी विस्तार से बताया गया है । उत्तरतन्त्र ग्रन्थ में चित्त की प्रभास्वरता का विषय प्रमुख है और इसी प्रकार यह ग्रन्थ सात वज्रबिन्दु द्वारा सहज उद्भव चित्त की प्रभास्वर पर बल देती है ।”

परमपावन ने आज के लिए यहीं पर विराम लिया और अपने निवास स्थान लौट गये ।

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