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जनवरी १४, २००३
तेनजिन ज्ञाछो, परम पावन १४वें दलाई लामा, द्वारा

यह ऐसा समय है जब विनाशकारी भावनाएँ जैसे क्रोध, भय और घृणा संपूर्ण विश्व में विध्वंसकारी समस्याओं को जन्म दे रही है। जहाँ दैनिक समाचार इस तरह की भावनाओं की विनाशकारी शक्ति के विषय में गंभीर चेतावनियाँ दे रहे हैं तो जो प्रश्न हमें पूछना चाहिए वह यह कि हम उन पर काबू पाने के लिए क्या कर सकते हैं?

इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसी त्रस्त करने वाली भावनाएँ सदा से ही मानव परिस्थिति का अंग रही है— मानवता हज़ारों वर्षों से उनसे जूझती रही है। पर मेरा विश्वास है कि विज्ञान और धर्म के आपसी सहयोग से इनसे निपटने की दिशा में प्रगति करने का एक मूल्यवान अवसर हमारे पास है।

इस को ध्यान में रखते हुए मैं १९८७ से वैज्ञानिक दलों के साथ लगातार संवाद के क्रम में लगा हुआ हूँ। माइंड एंड लाइफ़ इंस्टीट्यूट द्वारा आयोजित इस संवाद श्रृंखला में क्वांटम भौतिकी और ब्रह्माण्ड विज्ञान से लेकर करुणा और विनाशकारी भावनाओं तक पर चर्चा हुई है। मैंने पाया है कि ब्रह्माण्ड विज्ञान जैसे ज्ञान क्षेत्रों में जहाँ वैज्ञानिक खोजें एक अधिक गहन समझ प्रदान करती है, ऐसा लगता है कि बौद्ध व्याख्याएँ कभी कभी वैज्ञानिकों को अपने ही क्षेत्र को देखने का एक नया मार्ग देती है।

हमारे संवाद ने न केवल विज्ञान को ही लाभ पहुँचाया है अपितु इससे धर्म को भी लाभ हुआ है। यद्यपि तिब्बतियों को आंतरिक दुनिया के विषय में बहुमूल्य ज्ञान है, लेकिन वैज्ञानिक ज्ञान के अभाव में हम आंशिक रूप में भौतिक क्षेत्र में पिछड़े हैं। बौद्ध शिक्षाएँ यथार्थ को समझने के महत्त्व पर बल देती है। इसलिए, हमें ध्यान देना चाहिए कि आधुनिक वैज्ञानिकों ने प्रयोगों से और माप से वास्तव में क्या पाया है जिसे उन्होंने यथार्थ के रूप में प्रमाणित किया है।   इन संवादों के प्रारंभ में बौद्ध पक्ष से हम बहुत कम लोग ही होते थे, पहले पहल सिर्फ एक मैं और दो दुभाषिए। परन्तु हाल ही में हमने अपने विहारों में आधुनिक विज्ञान का शिक्षण प्रारंभ किया है और हमारे सबसे हाल ही में हुए विज्ञान संवाद के श्रोताओं में लगभग बीस तिब्बती भिक्षु थे। इस संवाद के लक्ष्य दो स्तरों पर हैं। एक शैक्षणिक स्तर पर है जिसका उद्देश्य ज्ञान का विस्तार है। साधारणतया विज्ञान इस वस्तु-जगत को समझने का एक असाधारण माध्यम रहा है, जिसने हमारे जीवन काल में ही बहुत प्रगति की है, यद्यपि खोजने के लिए अभी भी बहुत कुछ है। परन्तु आधुनिक विज्ञान आंतरिक अनुभवों के बारे में इतना विकसित नहीं प्रतीत होता।

इसके विपरीत बौद्ध दर्शन, जो एक प्राचीन भारतीय विचार धारा है, मन की क्रियाओं के विषय में एक गहरी खोज प्रतिबिंबित करता है। पिछली सदियों में बहुत लोगों ने इस क्षेत्र में काम किया है, जिन्हें इस क्षेत्र में हम प्रयोग कह सकते हैं, और अपने ज्ञान पर आधारित अभ्यासों से महत्त्वपूर्ण, यहाँ तक कि असाधारण अनुभव अर्जित किए हैं। इसलिए मानव ज्ञान के विस्तार के लिए वैज्ञानिकों और बौद्ध अध्येताओं के बीच शैक्षणिक स्तर पर और अधिक चर्चाएँ और मिले जुले अध्ययन सहायक होंगे।

एक दूसरे धरातल पर यदि मानवता को जीवित रखना है तो सुख तथा आंतरिक शांति महत्त्वपूर्ण है। अन्यथा हमारे बच्चों और उनके बच्चों के जीवन दुखी, हताश और अल्पायु होने की संभावना होगी। ११ सितंबर २००१ की त्रासदी ने दिखा दिया कि घृणा से संचालित आधुनिक तकनीक और मनुष्य बुद्धि अत्यधिक विनाश ला सकती है। भौतिक विकास निश्चित रूप से प्रसन्नता में - और एक सीमा तक – आरामदेय जीवन शैली में योगदान देता है। पर यह पर्याप्त नहीं है। सुख के एक और गहन स्तर को प्राप्त करने के लिए हम अपने आंतरिक विकास की उपेक्षा नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए, मैं अनुभव करता हूँ कि हमारे आधारभूत मानवीय मूल्य हमारी भौतिक क्षमताओं के नए शक्तिशाली विकास के साथ कदम नहीं मिला पाए हैं।

यही कारण है कि मैं वैज्ञानिकों को लगातार प्रोत्साहित करता रहा हूँ कि वे उच्च स्तर के तिब्बती आध्यात्मिक अभ्यासियों का परीक्षण करें, देखें कि धार्मिक संदर्भ के बाहर उनके आध्यात्मिक अभ्यास के किन प्रभावों से दूसरों को लाभ हो सकता है। एक उपाय यह हो सकता है कि इन आंतरिक विधियों की कार्यपद्धति को स्पष्ट करने के लिए वैज्ञानिकों की सहायता ली जाए। यहाँ महत्त्वपूर्ण बिन्दु यह है कि हमें चित्त, चेतना और अपनी भावनाओं के संसार के बारे में अपनी समझ बढ़ानी है।

पहले ही ऐसे प्रयोग किए जा चुके हैं, जो दिखाते हैं कि कुछ अभ्यासी विचलित करने वाली परिस्थितियों से घिरे होने पर भी आंतरिक शांति की स्थिति प्राप्त कर सकते हैं। परिणाम ऐसे लोगों को अधिक सुखी, विध्वंसक भावनाओं से कम प्रभावित होने वाले और दूसरों की भावनाओं के प्रति ज्यादा संवेदनशील दिखाते हैं। ये विधियाँ न केवल उपयोगी हैं, अपितु सस्ती भी हैं: आपको न तो कुछ खरीदने की आवश्यकता है और न कारखाने में कुछ बनाने की। आपको किसी दवा या इंजेक्शन की ज़रूरत नहीं।   अगला प्रश्न है कि हम यह हितकारी परिणाम उन लोगों के साथ कैसे बाँटे, जो बौद्धों से परे हैं। इसका केवल बौद्ध धर्म अथवा किसी अन्य धार्मिक परम्परा से सम्बन्ध नहीं है – यह केवल मानव के चित्त की क्षमताओं को स्पष्ट करने का प्रयास है। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे धनवान हो अथवा निर्धन, शिक्षित हो या अशिक्षित, में एक शांतिपूर्ण और अर्थपूर्ण जीवन जीने की क्षमता होती है। हमें इस बात की खोज करनी चाहिए कि हम कहाँ तक और कैसे उसे संभव कर सकते हैं।   उस खोज के दौरान यह स्पष्ट हो जायेगा कि अधिकतर मानसिक विचलन बाहरी कारकों से नहीं बल्कि आंतरिक उभरने वाले क्लेशों से उत्पन्न होते हैं। उथल-पुथल के इन स्रोतों का सबसे उत्तम प्रतिकारक इन भावावेगों से स्वयं निबटने की हमारी अपनी क्षमता को बढ़ाने से मिलेगा। अंततः हमें एक ऐसी चेतना के विकास की आवश्यकता होगी, जो हमें स्वयं ही नकारात्मक भावनाओं और क्लेशों पर नियंत्रण करने के उपाय उपलब्ध कराए।

आध्यात्मिक उपाय उपलब्ध हैं, लेकिन हमें उन्हें उस वर्ग के लिए स्वीकार्य बनाना होगा जिनमें आध्यात्मिक रुझान न हो। ये उपाय तभी व्यापक रूप से प्रभावशाली होंगे यदि हम ऐसा कर सकें। यह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि विज्ञान, तकनीक और भौतिक विकास हमारी सारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। हमें अपने भौतिक विकास को करुणा, सहिष्णुता, क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन जैसे मानवीय मूल्यों के आंतरिक विकास के साथ जोड़ने की आवश्यकता है।


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