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करुणा सुख के स्रोत के रूप में

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जीवन का उद्देश्य सुख के लिए प्रयास करना।

हम यहाँ हैं; हमारा अस्तित्व है और हमें अस्तित्व रखने का अधिकार है। यहाँ तक पुष्प जैसे गैर-सत्व प्राणियों को भी अस्तित्व का अधिकार है। अगर उनके विरुद्ध किसी नकारात्मक बल का प्रयोग किया जाता है तो रासायनिक स्तर पर, पुष्प स्वयं को जीवित रहने के लिए स्वयं की मरम्मत कर लेते हैं। पर उससे भी अधिक, हम मानव, कीड़े मकोड़े, यहाँ तक कि सबसे छोटा प्राणी अमीबा भी सत्व माना जाता है। और एक सत्व के रूप में, हमारे जीवित रहने के लिए हमारी सहायता करने के लिए और भी तंत्र हैं।

मेरी वैज्ञानिकों के साथ हुई चर्चाओं के अनुसार जो स्वयं इच्छानुसार चल सकती हैं उसका अर्थ "सत्व" है। "सत्व" होने का अर्थ आवश्यक रूप से सचेत होना या सचेतन स्तर पर मानव होना नहीं है। वास्तव में यह परिभाषित करना कठिन है कि "चेतना" अथवा "चेतन" का क्या अर्थ है। साधारणतया इसका अर्थ चित्त का सबसे स्पष्ट पक्ष है, पर फिर जब हम अर्धचेतन अथवा बेहोश होते हैं तो क्या कोई चेतना नहीं होती? क्या कीड़े मकोड़ों में होती है? शायद चेतना के स्थान पर "संज्ञानात्मक संकाय" कहना उचित होगा।

परम पावन दलाई लामा एमआईटी के क्रेजगे सभागार में छात्रों के साथ बातचीत के दौरान करुणा के संबंध में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए, बोस्टन, एमए, अमरीका, ३१ अक्टूबर २०१४  (चित्र/ब्रायन लीमा)

जो भी हो संज्ञानात्मक संकाय द्वारा मुख्य बिंदु, जो हम यहाँ संदर्भित कर रहे हैं वह भावनाओं का अनुभव करने की क्षमता हैः पीड़ा, सुख या तटस्थ भावनाएँ। वास्तव में आनन्द और पीड़ा, सुख और दुःख, वे हैं जिनकी हमें अधिक गहनता से जांचने की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ प्रत्येक सत्व को जीवित रहने का अधिकार है और जीवित रहने के लिए, इसका अर्थ हुआ सुख या आराम की इच्छाः इसी कारण सत्व जीवित रहने का प्रयास करते हैं। अतः हमारा जीवित रहना आशा पर आधारित है - कुछ अच्छे की आशाः सुख। इसी कारण मैं सदैव यह निष्कर्ष निकालता हूँ कि जीवन का उद्देश्य सुख है। आशा और सुख से हमारा शरीर अच्छा अनुभव करता है। इसलिए, आशा और खुशी हमारे स्वास्थ्य के लिए सकारात्मक कारक हैं। स्वास्थ्य मन के सुख की स्थिति पर निर्भर करता है।

दूसरी ओर क्रोध असुरक्षा की भावना पर आधारित है और हममें भय की भावना लाता है। जब हम कुछ अच्छे का सामना करते हैं तो हम सुरक्षित अनुभव करते हैं। जब कोई हमें धमकी देता है, हम असुरक्षित अनुभव करते हैं और फिर हम क्रोधित हो जाते हैं। क्रोध चित्त का वो अंग है जो कि हमारे अस्तित्व को हानि पहुँचाने वाले तत्व से बचाव करता है। पर क्रोध स्वयं हममें बुरी अनुभूति लाता है और इसलिए, अंततः यह हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

मोह एक तत्व है जो अस्तित्व के लिए सहायक है। अतः बिना किसी चेतना के एक पौधे में भी कुछ रासायनिक पहलू हैं जो इसकी स्वरक्षा में और इसके विकास में सहायक हैं। एक भौतिक स्तर पर, हमारे शरीर एक समान हैं। पर मनुष्य के रूप में, हमारे शरीर के भावनात्मक स्तर पर एक सकारात्मक तत्व भी है जो हमें किसी के साथ मोह या हमारे अपने सुख के लिए मोह लाता है। दूसरी ओर क्रोध अपने हानिकारक तत्व के साथ, हमें वस्तुओं से दूर कर देता है जिसमें सुख भी शामिल है। शारीरिक स्तर पर, आनंद जो सुख लाता है शरीर के लिए अच्छा है; जबकि क्रोध और यह जिस दुख का कारण है वह हानिकारक है। इसलिए अस्तित्व की खोज के परिप्रेक्ष्य से जीवन का उद्देश्य एक सुखी जीवन है।

यह आधारभूत मानव स्तर है जिसके विषय में मैं बोल रहा हूँ; मैं धार्मिक, माध्यमिक स्तर पर नहीं बोल रहा। धार्मिक स्तर पर, निश्चित रूप से जीवन के उद्देश्य के विभिन्न स्पष्टीकरण हैं। दूसरे स्तर का पहलू वास्तव में काफी जटिल है; अतः आधारभूत मानवीय स्तर पर बात करना बेहतर है।

सुख क्या है?

चूंकि हमारा लक्ष्य और जीवन का उद्देश्य सुख है, अतः सुख क्या है? यदा-कदा शारीरिक कष्ट भी एक अधिक संतोष प्रदान कर सकता है जैसे एक कष्टप्रद कसरत एक हृष्ट पुष्ट में संतोष की एक गहरी भावना ला सकता है। अतः "सुख" का अर्थ प्रमुख रूप से गहरी संतुष्टि की भावना है। इस तरह जीवन या हमारे लक्ष्य का उद्देश्य संतोष है।

सुख, उदासी अथवा पीड़ा - इन के लिए, दो स्तर हैं: एक ऐन्द्रिक स्तर और एक मानसिक स्तर। ऐन्द्रिक स्तर छोटे स्तनधारियों, यहाँ तक कि कीड़े - एक मक्खी के साथ आम है। शीत काल में, जब सूरज निकलता है, एक मक्खी खुशी का पक्ष दिखाती है: यह चारों ओर अच्छी तरह उड़ती है। एक ठंडे कमरे में इसकी गति धीमी पड़ जाती है: यह उदासी का संकेत है। परन्तु यदि कोई अत्यंत विकसित मस्तिष्क है तो यहाँ पर ऐन्द्रिक सुख की एक अधिक प्रबल भावना है। इसके अतिरिक्त यद्यपि हमारा परिष्कृत मस्तिष्क आकार में सबसे बड़ा है और इसलिए, हमारे पास बुद्धि भी है।

परम पावन के निवास पर आयोजित आनन्द के विषय में चर्चा के दौरान आर्कबिशप डेसमंड टूटु और परम पावन दलाई लामा, धर्मशाला, हि. प्र., भारत, अप्रैल २०१५ (चित्र/तेनज़िन छोजोर/ओएचएचडीएल)

उन मनुष्यों के संबंध में विचार करें जो किसी भी शारीरिक संकटों का अनुभव नहीं करते। उनके पास एक सुखी, आरामदायक जीवन, अच्छे मित्र, वेतन और नाम है। लेकिन, फिर भी हम देखते हैं कि कुछ करोड़पति, उदाहरण के लिए - उन्हें लगता है कि वे समाज का एक महत्वपूर्ण अंग हैं, पर प्रायः ये व्यक्ति के रूप में बहुत दुखी लोग हैं। कुछ अवसरों पर मैंने बहुत ही समृद्ध, प्रभावशाली लोगों से भेंट की है, जिनकी भावनाएँ बहुत परेशान थीं कि अंदर ही अंदर उनमें एकाकीपन, तनाव और चिंता की अनुभूति थी। इसलिए, मानसिक स्तर पर, वे पीड़ित हैं।

हमारे पास एक अद्भुत बुद्धि है, इसलिए हमारे अनुभव का मानसिक स्तर भौतिक स्तर की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली है। उसके द्वारा शारीरिक पीड़ा को कम या शांत किया जा सकता है। एक छोटे से उदाहरण के रूप में, कुछ समय पहले मुझे एक गंभीर रोग हुआ। यह मेरी आंतों के लिए अत्यंत पीड़ाजनक था। उस समय, मैं बिहार में था, भारत का सबसे निर्धन प्रदेश और मैं बोधगया और नालंदा से होता हुआ गुज़रा। वहाँ, मैंने बहुत गरीब बच्चों को देखा। वे गोबर जमा कर रहे थे। उनके पास शिक्षा की कोई सुविधा नहीं थी और मुझे बहुत दुख हुआ। फिर, प्रदेश की राजधानी पटना के पास, मुझे बहुत पीड़ा हुई और पसीना आया। मैंने एक बीमार वृद्ध व्यक्ति, एक रोगी को देखा जो सफेद कपड़े पहने हुए था जो अत्यंत मैले थे। कोई भी उसकी देखभाल नहीं कर रहा था; यह वास्तव में बहुत दुखद था। उस रात अपने होटल के कमरे में, मेरी शारीरिक पीड़ा बहुत अधिक थी, पर मेरा मन उन बच्चों और उस वृद्ध व्यक्ति के बारे में सोच रहा था। उस चिंता ने मेरी शारीरिक पीड़ा को बहुत कम कर दिया।

उनका उदाहरण लें, जो ओलंपिक खेलों के लिए प्रशिक्षण लेते हैं। वे बहुत श्रमसाध्य प्रशिक्षण करते हैं और चाहे कितनी ही पीड़ा और कष्ट का अनुभव करना पड़े, मानसिक स्तर पर उन्हें खुशी होती है। इसलिए शारीरिक अनुभव से मानसिक स्तर अधिक महत्वपूर्ण है। अतः जीवन में जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है सुख और संतोष।

सुख के कारण

अब, सुख के क्या कारण हैं? मुझे लगता है कि चूंकि इस शरीर का तत्व शांत मन के साथ भली भांति मेल खाता है, न कि एक व्याकुल चित्त के साथ, इसलिए एक शांत चित्त बहुत महत्वपूर्ण है। हमारी शारीरिक स्थिति से कोई अंतर नहीं आता, मानसिक शांति सबसे महत्वपूर्ण है। तो, हम एक शांत चित्त कैसे ला सकते हैं?
अब, सभी समस्याओं से छुटकारा पाना तो अव्यावहारिक होगा; और मन को सुस्त बनाना और अपनी समस्याओं को भूल जाना, उससे भी काम नहीं बनता। हमें अपनी समस्याओं को स्पष्ट रूप से देखना और उनके साथ निपटना होगा, पर साथ ही एक शांत चित्त रखें ताकि हमारे पास एक वास्तविक दृष्टिकोण हो और हम उनके साथ अच्छी तरह से व्यवहार करने में सक्षम हों और उनके साथ अच्छी तरह से निपटें।

उन लोगों के लिए जो नींद की गोलियां लेते हैं - ठीक है, मेरे पास कोई अनुभव नहीं है। मैं नहीं जानता कि उस समय जब लोग नींद की गोलियां लेते हैं तो उनकी बुद्धि तेज या सुस्त होती है; मुझे पूछना होगा। उदाहरण के लिए, १९५९ में, जब मैं मसूरी में था, मेरी माँ या शायद कोई और बहुत परेशान थी और चिंतित थी: नींद की परेशानी थी। चिकित्सक ने समझाया कि कुछ दवाएँ थीं जो वे ले सकते थे, पर वह मन को थोड़ा सुस्त बना देगा। मैंने उस समय सोचा कि यह अच्छा नहीं है। एक ओर आपका चित्त किंचित शांत है, पर दूसरी ओर यदि उसका प्रभाव सुस्ती हो तो वह अच्छा नहीं है। मैं कोई अन्य उपाय पसंद करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि बुद्धि पूरी तरह कार्यात्मक और ध्यानयुक्त और सतर्क हो, व्याकुल नहीं। बिना किसी व्याकुलता के मानसिक शांति सर्वश्रेष्ठ है।

परम पावन दलाई लामा धर्मशाला में अपने आवास पर आर्कबिशप डेसमंड टूटू के साथ आनन्द विषय पर उनके साथ बातचीत के दौरान हँसी का आनंद लेते हुए, धर्मशाला, हि. प्र., भारत, अप्रैल २०१५ (चित्र/तेनज़िन छोजोर/ओएचएचडीएल)

इसके लिए करुणाशील मानवीय स्नेह वास्तव में महत्वपूर्ण है: हमारा चित्त जितना अधिक करुणाशील होगा, हमारे मस्तिष्क का कार्य उतना बेहतर होगा। यदि हमारा चित्त भय और क्रोध जनित करता है, जब ऐसा होता है तो हमारा दिमाग अधिक बुरी तरह से काम करता है। एक अवसर पर मेरी एक वैज्ञानिक से भेंट हुई, जो अस्सी वर्ष का था। उसने मुझे अपनी पुस्तकों में से एक दिया। मुझे लगता है कि उसका शीर्षक था, हम क्रोध के बंदी हैं, ऐसा कुछ। अपने अनुभव पर चर्चा करते हुए, उन्होंने कहा कि जब हम किसी वस्तु की ओर क्रोध उत्पन्न करते हैं तो वस्तु बहुत नकारात्मक प्रतीत होती है। पर उस नकारात्मकता का नब्बे प्रतिशत हमारा अपना मानसिक प्रक्षेपण है। यह उसके अपने अनुभव से था।

बौद्ध धर्म भी वही कहता है। जब नकारात्मक भावना विकसित होती है तो हम वास्तविकता नहीं देख सकते। जब हमें निर्णय करने की आवश्यकता होती है और चित्त पर क्रोध हावी हो जाता है तो संभावना है कि हम गलत निर्णय लेंगे। कोई भी गलत फैसला नहीं करना चाहता, पर उस क्षण हमारी बुद्धि और मस्तिष्क का वह भाग हिस्सा जो सही गलत में अंतर करता है और सबसे सही निर्णय लेता है वह बहुत बुरी तरह से काम करता है। यहाँ तक कि महान नेताओं ने भी ऐसा अनुभव किया है।

इसलिए, करुणा व स्नेह मस्तिष्क को अधिक आसानी से कार्य करने में सहायता करते हैं। दूसरी बात, करुणा हमें आंतरिक शक्ति देती है; यह हमें आत्मविश्वास देती है और जिससे भय कम होता है, जो फिर हमारे दिमाग को शांत रखता है। इसलिए करुणा के दो प्रकार्य हैं: यह हमारे मस्तिष्क को बेहतर कार्य करने में सक्षम करता है और आंतरिक शक्ति लाता है। ये ही सुख के कारण हैं। मुझे लगता है कि ऐसा है।

अब अन्य संकाय भी निश्चित रूप से सुख के लिए अच्छे हैं। उदाहरणार्थ सभी को धन पसंद है। यदि हमारे पास पैसा है तो हम अच्छी सुविधाओं का आनंद ले सकते हैं। साधारणतया हम इनको सबसे महत्वपूर्ण चीजें मानते हैं, पर मुझे लगता है कि ऐसा नहीं है। शारीरिक प्रयास के माध्यम से भौतिक सुख प्राप्त हो सकता है, परन्तु मानसिक प्रयास से चित्त की शांति आनी चाहिए। यदि हम दुकान पर जाकर दुकानदार को पैसे देकर कहें कि हम चित्त की शांति खरीदना चाहते हैं तो वे कहेंगे कि उनके पास बेचने के लिए कुछ भी नहीं है। कुछ दुकानदारों को लगेगा कि यह कुछ पागलपन है और वे हम पर हंसेंगे। कुछ इंजेक्शन या गोली शायद अस्थायी खुशी या चित्त की शांति दे सकते हैं, परन्तु पूर्ण रूप से नहीं। हम परामर्श के उदाहरण से देख सकते हैं कि हमें चर्चाओं और तर्कों के माध्यम से भावनाओं से निपटने की आवश्यकता है। इस प्रकार हमें एक मानसिक दृष्टिकोण का उपयोग करना चाहिए। अतः जब भी मैं व्याख्यान देता हूँ, मैं कहता हूँ कि हम आधुनिक लोग बाहरी विकास पर अत्यधिक सोचते हैं। यदि हम केवल उस स्तर पर ध्यान दें तो वह पर्याप्त नहीं है। वास्तविक सुख और संतुष्टि भीतर से आनी चाहिए।

उसके लिए बुनियादी तत्व हैं करुणा तथा और मानव स्नेह और ये जीव विज्ञान से आते हैं। एक शिशु के रूप में हमारा अस्तित्व मात्र स्नेह पर निर्भर करता है। यदि स्नेह है तो हम सुरक्षित महसूस करते हैं। अगर ऐसा नहीं है तो हम व्याकुल व असुरक्षित अनुभव करते हैं। यदि हम अपनी माँ से अलग हो जाएँ तो हम रोते हैं। यदि हम अपनी माँ के बाहों में हैं और माँ ने हमें कस कर, प्रेम से पकड़ा हुआ है तो हम खुश होते हैं और चुप रहते हैं। एक बच्चे के रूप में, यह एक जैविक कारक है। उदाहरण के लिए एक वैज्ञानिक, मेरे शिक्षक, एक जीवविज्ञानी जो परमाणु हिंसा के विरोधी हैं, ने मुझे बताया कि जन्म के बाद, कई हफ्तों के लिए एक माँ का शारीरिक स्पर्श बच्चे के मस्तिष्क के विस्तार और विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यह सुरक्षा और आराम की भावना लाता है और यह मस्तिष्क सहित भौतिक विकास के उचित विकास की ओर ले जाता है।
इस तरह करुणा और स्नेह का बीज धर्म से नहीं आताः यह जीव विज्ञान से आता है। हममें से प्रत्येक अपनी माँ के गर्भ से आए हैं और हममें से प्रत्येक अपनी माँ की देखभाल और स्नेह के कारण जीवित रहे। भारतीय परम्परा में, हम एक शुद्ध भूमि में कमल से जन्म को मानते हैं। यह सुनने में बहुत अच्छा लगता है, पर संभवतः वहाँ लोगों को व्यक्तियों की तुलना में कमल के प्रति अधिक स्नेह है। अतः माता के गर्भ से पैदा होना बेहतर है। ऐसी स्थिति में हम पहले से ही करुणा के बीज से सुसज्जित हैं। तो, वे सब सुख के कारण हैं।

परम पावन १४वें दलाई लामा

सौजन्य - studybuddhism.com



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